भील Bhils
आर्थिक दृष्टि से ये लोग स्थायी कृषक, सामाजिक दृष्टि से पितृसत्तात्मक, जनजाति एवं परम्परागत रूप से एक अच्छे तीरंदाज होते हैं। वर्तमान में यह जनजाति विकास के विभिन्न चरणों में मानी जा सकती है। मध्य प्रदेश एवं दक्षिणी राजस्थान के भील अब तेजी से श्रमिक व स्थायी कृषक बनते जा रहे हैं। गुजराती भील कृषक, पशुपालक, व् व्यापारी हैं। राजस्थान व महाराष्ट्र में पहले यह घुमंतू कृषक व आखेटक थे, अब यह स्थायी कृषक व पशुपालक हैं। यह भारत की तीसरी बड़ी जनजाति है।
निवास क्षेत्र– भीलों का निवास क्षेत्र मुख्यतः प्रायद्वीपीय पहाड़ी भागों तक सीमित है। अरावली, विंध्याचल एवं सतपुड़ा पर्वत तथा कोटा के पठार इनके सबसे बड़े निवास स्थान हैं। राज्यों की दृष्टि से अधिकांश भील मध्य प्रदेश में (धार, झाबुआ, रतलाम और निमाड़ जिलों में) राजस्थान में (डूंगरपुर, बाँसवाड़ा, उदयपुर, चितौड़गढ़ जिलों में) गुजरात में (पंचमहल, साबरकांठा, बनासकांठा, वड़ोदरा जिलों में) केन्द्रित हैं। बिखरे हुए रूप में महाराष्ट्र और कर्नाटक में भी कुछ भील पाए जाते हैं।
शाब्दिक दृष्टि से भील का अर्थ तीर चलाने वाले व्यक्ति से लिया गया है। यह द्रविड़ भाषा का शब्द है, जिसकी उत्पति बिल अर्थात् तीर से हुई है। ये लोग सदैव अपने पास तीर-कमान रखते हैं।
वातावरण सम्बन्धी परिस्थितियाँ- भीलों का प्रदेश सामान्यतः ऊबड़-खाबड़ पहाड़ी होता है। यह क्षेत्र समुद्रतट से 600 से 1,000 मीटर ऊँचा होता है। इसमें घने मानसूनी वन मिलते हैं। पहाड़ी भागों में बीच-बीच में छोटी, संकरी, उपजाऊ नदी-घाटियाँ भी मिलती हैं। माही, सावरमती, कागदर, तापी, नर्मदा प्रमुख नदियाँ हैं। नदियों में वर्षाकाल में बाढ़े आती हैं, किन्तु ग्रीष्मकाल में प्रायः सूख जाती हैं। इनके मार्ग में भूमि कटाव बहुत होने से गहरे खड़े पाए जाते हैं। भील आदिवासी क्षेत्र का तापमान 10° से 43° तक पाया जाता है और वर्षा 50 से 125 सेमी के मध्य होती है। अधिकांशतः मिट्टी लाल, पथरीली और कॉपयुक्त होती है। वनों में सामान्यतः महुआ, आम, बाँस, सागवान, नीम, टीमरू, ढाक, खेजड़ा, साल, पलास के वृक्ष अधिक पाए जाते हैं। इनमें लोमड़ी, सियार, खरगोश अनेक प्रकार के सर्प, चिड़ियाँ तथा कहीं-कहीं हिरण एवं तेंदुए भी मिलते हैं, उनका ये शिकार करते हैं।
शारीरिक गठन- भील सामान्यतः छोटे कद के होते हैं, औसत मध्यम कद 163 सेमी होता है। सिर की लम्बाई 181.1 मिमी तथा चौड़ाई 137.4 मिमी पायी जाती है। नाक मध्यम से चौड़ी होती है। चेहरा गोलाई लिए चौड़ा और शरीर पूर्णतः विकसित होता है। इनका रंग हल्के भूरे से गहरा काला, बाल चिकने तथा काले एवं लहरदार होते हैं। आँख का रंग कत्थई, गहरा भूरा होता है। आँख की पुतली बड़ी, होंठ पतले से मोटे, दाढ़ीमूंछ कम, शरीर पर बाल कम और शरीर सुगठित होता है।
वस्त्राभूषण- गरीबी के कारण भील लोग प्रायः मोटे और सस्ते तथा बहुत कम कपड़े पहनते हैं। पुरुष अधिकतर एक लंगोटी अथवा अंगोछा लपेटे रहते हैं जो केवल घुटने तक नीचा होता है। इसे फाल कहते हैं। इसके ऊपर बड़ी या कमीज और सिर पर पगड़ी या साफा बाँधते हैं। जब घर पर रहते हैं तो केवल लंगोटी तथा पगड़ी ही पहनते हैं। स्त्रियाँ प्रायः लाल या गहरे रंग का फालू पहनती हैं, यह सम्पूर्ण छातियों को ढकता है। इस वस्त्र को कछाबू कहते हैं। अब भील स्त्रियाँ लुगड़ी, साड़ी, चोली लहंगा, आदि भी पहनने लगी हैं।
भील स्त्री-पुरुषों को गोदने गुदाने का बड़ा चाव होता है। अधिकतर गोदने मुंह और हाथ पर गुदाए जाते हैं। स्त्रियाँ गले में चाँदी की हसली या कानों में चाँदी की बालियाँ, गले में जंजीर, नाक में और हाथों में व पैरों में पीतल के छल्ले तथा सिर पर बोर और पैरों में पीतल की पैजनियाँ पहनती हैं। शादी होने पर हाथ में कड़ा, कान में वालियाँ तथा गले में हसली भी पहन लेते हैं।
बस्तियाँ और घर- भीलों के गाँव सामान्यतः छोटे (20 से 50 तक की झोपड़ियों के) होते हैं, जो पहाड़ी ढालों, जंगलों तथा नदियों के किनारे दूरदूर तक फैली बस्तियों के रूप में होते हैं। ये गाँव न अधिक घने बसे होते हैं और न ही कतार में अथवा समूह में बसाए जाते हैं। गाँव की सीमा दिखाने के लिए किसी वृक्ष पर घास का बण्डल लटका दिया जाता है। गाँव के बाहर ही इनके देवरे (मन्दिर सदृश्य पूजा स्थल) होते हैं, जहाँ भैरू, देवी और क्षेत्रपाल, आदि देवताओं की आकृतियों के पत्थर रखे जाते हैं। अब भीलों के घर अन्य बस्तियों कस्बों की बाहरी सीमा पर भी समूहों में (भीली बस्ती) पाए जाते हैं।
भीलों के घरों को कू कहा जाता है। ये आयताकार होते हैं और सामान्यतः धरातल से 60 सेण्टीमीटर से 1.25 मीटर ऊँचे होते हैं। इनकी दीवारें बाँस या पत्थर की बनी होती हैं तथा फर्श मिट्टी या पत्थर का, छत घासफूस या खपरैल डाल कर बनायी जाती है। मकान की दीवारें बीच में 3 से 3½ मीटर ऊँची होती हैं, इनके ऊपर ताड़ या अन्य वृक्ष का तना रखकर उसे छप्पर से दिया जाता है। खपरैल पर कद्दू, लौकी या तुरई, आदि की वेलें चढ़ा दी जाती हैं। यदि घरों के निकट खाली जगह हो तो उसमें बैंगन, रतालू, मिर्ची या टमाटर यो देते हैं। बैठने के लिए 1-2 लकड़ी की चारपाई होती हैं। घास रखने के लिए कोने में व्यवस्था की जाती है। घर के बर्तन मुख्यतः मिट्टी या लकड़ी के बने होते हैं : थाली, रकाबी, प्याले, घड़े, आदि। अनाज भरने के लिए मिट्टी या बाँस की बनी कोठियाँ होती हैं। चटाइयाँ, डलियाँ, आदि का भी उपयोग किया जाता है।
भोजन– इनका भोजन मुख्यतः अनाज (गेहूं, चावल, मक्का, कोदों), दाल सब्जियों का होता है। उत्सव के अवसर पर अथवा शिकार करने पर बकरे या भैस का माँस, मुर्गी के अण्डे, मछलियाँ भी खाते हैं। यदा-कदा दूध अथवा का भी प्रयोग करते हैं। प्रात:काल के भोजन में चावल, कोदों तथा सब्जी या दाल खाते हैं और शाम को मक्का की रोटी तथा प्याज या कोई सब्जी। महुआ की बनी शराब तथा ताड़ी का रस पीया जाता है। तम्बाकू और गाँजे का भी सेवन किया जाता है। महुआ के फल, सीताफल, आम, बेर, आदि मिल जाने पर उनका भी उपयोग किया जाता है।
व्यवसाय- भील लोग परम्परा से घुमक्कड़ स्वभाव के होते हैं, किन्तु अब अनेक भागों में ये कृषि करने लगे हैं। पहाड़ी ढालों से प्राप्त की गयी भूमि में, वर्षाकाल में अनाज, दालें, सब्जियाँ बो दी जाती हैं। इस प्रकार की खेती को चिमाता कहते हैं। मैदानी भागों में भी वनों को काटकर प्राप्त भूमि पर चावल, मक्का, मिर्ची, मोटे अनाज, गेहूं, पपीता, बैंगन, कद्दू, रतालू, आदि बोए जाते हैं। इस प्रकार की खेती को दजिआ कहा जाता है।
भील स्त्री और पुरुष निकटवर्ती तालाबों तथा नदियों में जालों से मछलियाँ भी पकड़ते हैं। जंगलों में तीर-कमान, फन्दे, गोफन की सहायता से पक्षियों, जंगली, सूअर, चीते, आदि का भी शिकार करते हैं। लड़के और स्त्रियाँ वनों से खाद्य जड़ें, वृक्षों की पत्तियाँ एवं कोपलें, फल, गांठें, शहद, आदि भी एकत्रित करती हैं। भील लोग भैस, गाय, बैल, भेड़, बकरियाँ और मुर्गियाँ भी पालते हैं। इनसे दूध, माँस और अण्डे प्राप्त किए जाते हैं। बकरी, भैसे तथा मुर्गी का धार्मिक उत्सवों पर बलिदान के रूप में भी उपयोग किया जाता है। कुछ भील खानों में खनिज निकालने अथवा ठेकेदारों के अन्तर्गत सड़कें और अन्य निर्माण कार्य में मजदूरी करने, लकड़ियाँ काटने और उन्हें ढोने का काम करते हैं।
सामाजिक व्यवस्था- भीलों की सामाजिक व्यवस्था बड़ी संगठित होती है। इनकी पूजा, विवाह विधियाँ, जीवन क्रम की विशेष पद्धति होती है। वृद्धों का आदर किया जाता है, सभी निर्णय उनके निर्देशानुसार किए जाते हैं। घर का मुखिया सबसे बुजुर्ग व्यक्ति होता है। भीलों के गाँव प्रायः एक ही वंश की शाखा के होते हैं। इनके मुखिया को तदवी और वसाओ कहा जाता है। प्रत्येक गाँव का अपना पंडित, पुजारी, कोतवाल, चरवाहा, ढोल बजाने वाला होता है। भील जाति अनेक छोटे-छोटे समूहों में विभक्त होती है, जिन्हें अटक, औदाख, गोत्र या कुल कहते हैं। एक अटक के सदस्य अपने को एक ही पुरखे का वंशज मानते हैं। अतः इनमें अन्तर्विवाह नहीं होते। ये लोग बहिर्विवाही होते हैं। प्रत्येक अटक किसी वृक्ष, पक्षी, स्थान या पूर्वज के नाम से जाना जाता है। एक अटकगोत्र के व्यक्ति दूसरे गोत्र में ही विवाह कर सकते हैं। भील लोग एक विवाह में विश्वास करते हैं। इनमें गंधर्व विवाह, अपहरण विवाह, विधवा विवाह प्रचलित हैं। विवाह निकटवर्ती सम्बन्धियों में वर्जित है।
धार्मिक विश्वास- भीलों का धर्म अधिकतर हिन्दू धर्म से ही प्रभावित हैI अतः ये हिन्दुओं के देवी-देवताओं को मानते हैं। महादेव, राम, कालिका, दुर्गा, हनुमान, गणेश, शीतलामाता, आदि की पूजा करते हैं। ये जादूटोना में भी काफी विश्वास करते हैं और इनकी बीमारियों तथा कष्टों के निवारण के लिए मोये (पुजारियों) द्वारा झाड़-फूक की जाती है। भूत-प्रेत, तन्त्र-मन्त्र में भी विश्वास किया जाता है और इनकी सन्तुष्टि के लिए पूजा और बलिदान किए जाते हैं। ये अपने मुर्दो को जलाते हैं और हिन्दुओं की भाँति ही कर्मकाण्ड करते हैं।
भील लोग होली, दीवाली, दशहरा के त्योहारों को बड़े आनन्द से मनाते हैं। शराब पीकर, नाचगाकर प्रसन्नता प्रकट की जाती है। यह आनन्द कई दिनों तक चलता रहता है।
जातीय समस्याएँ व सुधार के सुझाव
भारत का जनजाति समाज अनेक समस्याओं से ग्रस्त है। इनमें से कुछ उल्लेखनीय हैं-
- स्वतन्त्रता के 59 वर्ष पश्चात् भी इनका अर्थतन्त्र एवं व्यवसाय का रूप अल्प विकसित है। उल्टा अब इन्हें वन-पालकों एवं राजनेताओं का अनेक बार कोपभाजन हो पड़ता है।
- इनमें 5 प्रतिशत व्यक्ति ही सेकण्ड्री तक पढ़े हैं जो उच्च पदों या राजनीतिक दृष्टि से सक्षम हैं, उन्होंने कभी सामान्य जनजाति समाज को ऊपर उठाने एवं सक्षम बनाने का प्रयास नहीं किया गया।
- जनजाति क्षेत्र में अधिकांश परिवारों को शिक्षित व प्रशिक्षित करने के केन्द्र तो खोले हैं, किन्तु वहाँ शिक्षक, प्रशिक्षक एवं उपकरण व यन्त्रों का अभाव रहता है अथवा खराब होने पर उन्हें ठीक नहीं कराया जाता।
- जनजाति के जो परिवार शिक्षित होकर उच्च पदों पर आसीन हैं वे अपने परिवारजनों के ही हित-चिन्तक हैं, अत: अधिकांश समाज की विपन्न अवस्था है।
- केन्द्र राज्य सरकारें इनके विकास के लिए करोड़ों रुपया आबंटित करती हैं, किन्तु आज तक यह पैसा जनजाति कल्याण हेतु उन तक नहीं या न्यूनतम पहुंचता है।
अतः देश के जनजाति विकास हेतु शिक्षा का विकास व यातायात का विकास व्यावहारिक रूप में लागू होना अनिवार्य है
Recent Posts
- मोबाइल का नशा Mobile ka nasha
- Daily Current Affairs 15-03-2024 करंट अफेयर
- Daily Current Affairs 13-03-2024 करंट अफेयर
- Daily Current Affairs 08-02-2024 करंट अफेयर
- Daily Current Affairs 05-02-2024 करंट अफेयर
- Daily Current Affairs 02-02-2024
- Daily Current Affairs 31-01-2024 करंट अफेयर
- Daily Current Affairs 29-01-2024 करंट अफेयर
- Daily Current Affairs 28-01-2024 करंट अफेयर
- Daily Current Affairs 27-01-2024 करंट अफेयर
- Daily Current Affairs 26-01-2024 करंट अफेयर
- Daily Current Affairs 24-01-2024 करंट अफेयर
- Daily Current Affairs 22-01-2024 करंट अफेयर
- Daily Current Affairs 21-01-2024 करंट अफेयर
- Daily Current Affairs 20-01-2024 करंट अफेयर