मज्झिम निकाय तथा निदान कथा से महात्मा बुद्ध के जन्म की कथा का बोध होता है। गौतम बुद्ध का जन्म 563 ई.पू. में कपिलवस्तु की लुबिनी नामक वाटिका में हुआ था। उनके पिता का नाम शुद्धोदन और माता का नाम महामाया था। शुद्धोदन कपिलवस्तु के शाक्य गण के प्रधान थे। गौतम बुद्ध के बचपन का नाम सिद्धार्थ था। बौद्ध श्रुतियों के अनुसार, जन्म होने पर वे खड़े हो गए। सात डग भरे और कहा, यह मेरा अंतिम जन्म है, इसके बाद मेरा कोई जन्म नहीं होगा।
उनके जन्म के सातवें दिन ही उनकी माता महामाया का देहावसान हो गया। इसलिए उनका लालन-पालन उनकी मौसी महा प्रजापति गौतमी ने किया। उनके गोत्र का नाम गौतम था इसलिए उन्हें गौतम भी कहा गया है। सिद्धार्थ बचपन से ही मननशील थे। कहा जाता है कि एक बार बचपन में ही एक वृद्ध, एक रोगी, एक मृतक तथा बाद में एक सन्यासी को देख कर चिन्तामग्न हो गए थे। वृद्ध, रोगी और मृतक को देख कर उन्होंने मन में यह धारणा बना ली कि संसार में सर्वत्र दु:ख है। इन दु:खों से मुक्ति की चिन्ता उन्हें परेशान करने लगी। वे घंटों एकान्त में बैठकर चिन्तन में डूबे रहते। उनकी सांसारिकता की ओर से विरक्ति की भावना और प्रवृत्ति से उनके पिता चिन्तित रहने लगे। उन्हें सांसारिकता में प्रबल करने की दृष्टि से उनके पिता ने उनका विवाह यशोधरा नामक एक अत्यन्त सुन्दर कन्या से कर दिया। यशोधरा रामग्राम की कोतिय राजकुमारी थी। सिद्धार्थ ने लगभग 12 वर्षों तक गृहस्थ जीवन बिताया। इसी बीच उनके एक पुत्र हुआ। वे पुत्र जन्म से और भी क्षुब्ध हो गए और कहा कि राहु आ गया। इसी से उसका नाम राहुल पड़ गया। उस प्रकार जन्म, जरा, रोग, मृत्यु, दु:ख और अपवित्रता ने उन्हें संसार त्याग और निवृत्ति की ओर उत्प्रेरित किया। उन्होंने 29 वर्ष की अवस्था में गृहत्याग दिया। अपने प्रिय साईस (छन्न) की सहायता से एवं अपने प्रिय घोड़े कंथक पर चढ़कर उन्होंने गृह त्याग किया|
बौद्ध अनुश्रुतियों के अनुसार वे उरुबेला नामक ग्राम में तपस्या करने बैठ गये। किन्तु इससे पूर्व उन्हें दो गुरुओं का संरक्षण मिला। अलार कलाम ने उन्हें सांख्य दर्शन की शिक्षा दी परन्तु वे इस शिक्षा से संतुष्ट नहीं हुए। उनके दूसरे गुरू रुद्रक राम पुत्र थे। माना जाता है कि 35 वर्ष की अवस्था में गया में उरूवेला नामक स्थान पर निरंजना नदी के तट पर पीपल वृक्ष के नीचे उन्हें ज्ञान (बोध) प्राप्त हुआ। वैशाख पूर्णिमा के दिन उन्हें निर्वाण प्राप्त हुआ।
अनुश्रुतियों के अनुसार कि सबसे पहले उन्होंने तपस्सु और मल्लिक नाम दो बनजारों को दीक्षा दी। निर्वाण का शाब्दिक अर्थ है – बुझ जाना या कामना का अन्त कर देना। फलत: इसका अर्थ दुख का अन्त कर देना भी है। परन्तु यह केवल अन्त नहीं है यह मस्तिष्क की शांत अवस्था है। निर्वाण प्राप्त करने के बाद गौतम बुद्ध ने सारनाथ में अपने पूर्व के पाँच साथियों को पहली बार बौद्ध धर्म में दीक्षित किया। यह इतिहास में धर्मचक्र प्रवर्तन के नाम से जाना जाता है। सारनाथ के लिए एक और नाम आया है, वह है ऋषिपत्तन। इसके पश्चात् महात्मा बुद्ध काशी पहुँचे। वहाँ एक धनी व्यक्ति यश महात्मा बुद्ध का शिष्य बन गया। काशी के बाद बुद्ध उरूवेला पहुँचे। वहाँ कश्यप के नेतृत्व में अनेक ब्राह्मण पुरोहित बुद्ध के शिष्य बन गए। उरूवेला बिम्बिसार अपने अनुचरों के साथ बुद्ध के दर्शन एवं उनके उपदेश सुनने के लिए स्वंय उपस्थित हुआ। उसी समय सारिपुत्र एंव मौद्गल्यायन भी बुद्ध के शिष्य बन गए। बौद्ध धर्म के प्रचार कार्य में इन ब्राह्मण विद्वानों का उल्लेखनीय हाथ रहा। फिर बुद्ध अपनी जन्मभूमि कपिलवस्तु पहुँचे। वहाँ उनका भव्य स्वागत हुआ। उसी समय उनका पुत्र राहुल एंव परिवार के अन्य सदस्य उनके शिष्य बन गए। यहाँ से तथागत वैशाली पहुँचे। वैशाली की विख्यात नगर वधू आम्रपाली बुद्ध की शिष्या बन गई और उसने भिक्षुओं के निवास के लिए अपनी आम्रवाटिका प्रदान की। यहीं पर महात्मा बुद्ध ने प्रजापति गौतमी के विशेष आग्रह पर स्त्रियों को संघ में प्रवेश की स्वीकृति प्रदान की। इसके पश्चात् वे कोसल जनपद की राजधानी श्रावस्ती पहुँचे। वहाँ एक अत्यन्त धनी सेठ अनाथपिण्डक बुद्ध का अनुयायी बन गया। उसने राजकुमार जेत से बहुमूल्य जेतवन विहार खरीदा और इसे बौद्ध संघ को प्रदान किया। कोशल नरेश प्रसेनजित भी महात्मा बुद्ध की शरण में आ गया और उसने संघ के लिए पूरा पूर्वाराम नामक विहार बनवाया। कोशल जनपद में ही अगुंलीमाल नामक दुर्दांत डाकू उनका शिष्य बन गया। सबसे अधिक समय उन्होंने श्रावस्ती में बिताया। अवन्ति वे स्वंय नहीं जा सके परन्तु वहाँ उन्होंने अपने शिष्य महाकच्चायन के नेतृत्व में अपने शिष्यों का एक दल भेजा था। आनंद बुद्ध का प्रिय शिष्य था। उसने सुत्तपिटक का वाचक किया था। आनंद को बुद्ध की छाया भी कहा जाता है।
यहाँ यह ध्यातव्य है कि बालक गौतम को देखकर कालदेव तथा ब्राह्मण कौण्डिन्य ने भविष्यवाणी की थी कि यह चक्रवतीं राजा या सन्यासी होगा। माणवक्कु ने इस भविष्यवाणी को स्पष्ट रूप से बतलाते हुए कहा था कि बालक गौतम केवल बुद्ध ही होगा तथा इसका प्रवर्जन मृत, रोगी, वृद्ध तथा परिव्राजक इन चार चिन्हों को देखकर होगा। महाप्रजापति गौतमी प्रथम महिला थी जिसे बौद्ध संघ में प्रवेश दिया गया। आगे चलकर वैशाली की नगरवधू आम्रपाली भी बुद्ध की शिष्या बनी। इसी के तर्क-वितर्क के कारण बुद्ध के संघ में नर्त्तकी और रूपाजीवन को प्रवेश देना पड़ा। वर्षा के दिनों में बौद्ध भिक्षु एक निश्चित स्थान पर ठहर जाते थे। उन्हीं की सुविधाओं को ध्यान में रखकर बेलवन एवं जेतवन नामक बाग का निर्माण करवाया गया। 80 वर्ष की आयु में 483 ई.पू. में कुशीनगर में महात्मा बुद्ध ने अपना शरीर त्याग किया। यह घटना महापरिनिर्वाण के नाम से जानी जाती है। मृत्यु से पहले महात्मा बुद्ध का अन्तिम वर्षा काल वैशाली था।
उनके भस्म और अवशेष का विभाजन आठ भागों में किया गया। यह भस्म निम्नलिखित शासको को प्राप्त हुई – (1) वैशाली के लिच्छवि, (2) कपिलवस्तु के शाक्य, (3) रामग्राम के कोलिय, (4) वेट्ठदीप के ब्राह्मण, (5) कुशीनारा के मल्ल, (6) अलकप्पा के बुलीगण, (7) पिप्लीवन के मौर्य और (8) मगध का अजातशत्रु।
बौद्ध धर्म ने सामान्य जनों के बीच प्रचलित चैत्य की अवधारणा को अपना लिया। महात्मा बुद्ध के अवशेष पर प्रारंभ में आठ स्तूपों का निर्माण हुआ। प्रारंभ में हम एक स्तंभ की परिकल्पना देखते हैं जो शैव धर्म की लिंग पूजा पर आधारित था, किन्तु बाद में वह लुप्त हो गया। उनके लिए कई, उपाधियों का प्रयोग किया जाता है। बुद्ध (इंलाइटेंड) तथागत (वह जिसने पा लिया हो), शाक्यमुनि (शाक्यों का गुरू)। बुद्ध को आत्मा का अस्तित्व नहीं स्वीकारने के कारण अनत्ता, कामदेव (मार) को पराजित करने के कारण मारजीत, सम्पूर्ण लोक को जीतने वाला अर्थात् लोकजीत कहा गया है। बुद्ध का कनकमुनि नाम पूर्व जन्म से संबंधित था तथा इसी नाम पर कीनकमान स्तूप बना। बौद्ध धर्म के बारे में विस्तृत चर्चा ग्रन्थों में की गई है।
बौद्ध धर्म के सिद्धान्त
विद्वानों ने बौद्ध ग्रन्थों के आधार पर बौद्ध धर्म के सिद्धान्तों एवं दार्शनिक पक्ष की विवेचना की है। इनके आधार पर बौद्ध धर्म के सिद्धान्तों की चर्चा की जा सकती है।
कारण सिद्धान्त- महात्मा बुद्ध की मान्यता थी कि प्रत्येक कार्य एक कारण पर निर्भर होता है, अर्थात् संसार का कोई भी कार्य अकारण नहीं है। सृष्टि की समस्त घटनायें एक क्रम में हो रही हैं तथा एक घटना अथवा कार्य दूसरे कार्य के लिए कारण बन जाता है। इसे प्रतीत्य समुत्पाद (पतिच्च समुत्पाद) मध्यमा प्रतिपदा का नाम दिया गया। यह विचार आस्तिकता (शाश्वतता का सिद्धान्त) एवं नास्तिकता (उच्छेदवाद) के बीच का मार्ग हैं। आस्तिकता के नियम के अनुसार कुछ वस्तुयें नित्य हैं। उनका कोई आदि या अन्त नहीं है। ये किसी कारण का परिणाम नहीं है, आत्मा एवं ब्रह्म इसी कोटि में आते हैं। दूसरी ओर नास्तिकतावादी, चार्वाक एवं लोकायत यह मानते हैं कि वस्तुओं के नष्ट हो जाने पर कुछ भी शेष नहीं रहता। बुद्ध ने दोनों मतों को छोड़कर मध्यम मार्ग अपनाया जिसके अनुसार वस्तुओं का अस्तित्व है किन्तु वे नित्य नहीं हैं। उनकी उत्पत्ति कुछ कारणों पर निर्भर है। वस्तुओं का पूर्ण विनाश नहीं होता बल्कि उनका परिणाम शेष रह जाता है।
बुद्ध के हृदय में ज्ञान प्राप्ति से पूर्व अनेक शकायें उत्पन्न हुई थीं। उन्होंने विचार किया कि मनुष्य ऐसी दु:खपूर्ण स्थिति में क्यों है, जन्म, मृत्यु एवं दु:ख से मुक्ति का मार्ग, अन्तत: उन्हें ज्ञात हुआ जिसे आर्य सत्य चतुष्टय अथवा चत्वारि आर्य सत्यानि कहा गया। चार आर्य सत्य बौद्ध धर्म के सिद्धान्तों की आधारशिला हैं- दु:ख, दु:ख समुदाय, दु:ख निरोध एवं दु:ख निरोध का मार्ग|
दु:ख- महात्मा बुद्ध सम्पूर्ण संसार को दु:खमय मानकर चलते हैं। जरा, रोग, मृत्यु के दु:खमय दृश्यों को देखकर ही सिद्धार्थ ने सन्यास धारण किया था। ज्ञान प्राप्ति के बाद वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि मानव जाति दु:ख से ग्रसित है। जरा, रोग, मृत्यु, अप्रिय का संयोग, प्रिय का वियोग, इच्छित वस्तु की अप्राप्ति आदि सभी आसक्ति से उत्पन्न होते हैं, अत: सभी दु:ख हैं। क्षणिक विषयों में आसक्ति ही पुनर्जन्म तथा बन्धन का कारण है, सांसारिक सुखों को यथार्थ सुख समझना केवल अदूरदर्शिता है। मनुष्य मिथ्या धारणा से अपना तादाम्य अपने शरीर या मन से कर लेता है जिसके परिणामस्वरूप उसे विविध प्रकार के भौतिक सुखों की तृष्णा होती है। तृष्णा के वशीभूत होकर मनुष्य अहंभाव से विभिन्न प्रकार के स्वार्थपूर्ण कार्य करता है एवं तृष्णा सम्पूर्ति न होने पर दु:ख का अनुभव करता है। बुद्ध ने अपने शिष्यों को एक उदाहरण देते हुए बताया था कि दु:ख की इस व्यापक वेदना से जितने आंसू बहाये हैं वे ही अधिक हैं, इन चारों समुद्रों का जल नहीं।
दु:ख समुदाय- इस सन्दर्भ में सवाल यह उठता है कि दु:ख का कारण क्या है। बुद्ध ने प्रतीत्य समुत्पाद के माध्यम से दु:ख का कारण जानने का प्रयास किया। सिद्धान्त के अनुसार सभी वस्तुएँ कारणों एवं परिस्थितियों पर निर्भर करती हैं अत: दु:ख का भी कारण है। दु:ख अथवा जरा, मृत्यु तब ही संभव है जबकि जन्म (शरीर धारण) हो अर्थात् दु:ख जन्म (या जाति) पर निर्भर है। जन्म का होना तब ही संभव माना गया जबकि जन्म से पूर्व कोई अस्तित्व हो जिसे भव (भाव) नाम दिया है। कहा जा सकता है कि भव का कारण है। भव से अभिप्राय कर्म से है जिसके कारण पुनर्जन्म होता है। प्रक्रिया में वह कौन सा कारण है जिसके होने से भव की उत्पत्ति होती है। भव का आधार उपादान माना गया। यदि मनुष्य कामना के वशीभूत होकर कर्म करे तो जन्म नहीं होता अर्थात् सकाम कर्म अथवा मोह को उपादान नाम दिया गया। उपादान का हेतु तृष्णा (वासना) को माना है। यह उत्कृष्ट इच्छा करना कि जिन भोड़ों से हमें परितृप्ति होती है उनसे हमारा कभी वियोग न हो, इसको तृष्णा कहा गया। रूप, शब्द, स्पर्श, रस एवं गंध से तृष्णा सम्बद्ध होती है। तृष्णा का आधार वेदना है। पूर्व विषय भोग या सहानुभूति से हमारी तृष्णा जाग उठती है अर्थात् इन्द्रिय-जन्य अनुभूति को वेदना की संज्ञा दी गई। वेदना की अनुभूति के लिए ज्ञानेन्द्रिय का सम्पर्क आवश्यक है। ज्ञानेन्द्रिय के सम्पर्क (इन्द्रिय जन्य चेतना) को स्पर्श कहा गया। इद्रिय जन्य चेतना के अभाव में अनुभूति संभव नहीं है। स्पर्श हेतु पाँच इन्द्रिय एवं मन आवश्यक है। इसे षडायतन कहकर सम्बोधित किया है। इन छ: आयतनों (षडायतन) के लिए बुद्धि (या मन) एवं शरीर होना आवश्यक है। षडचेतनायें मनुष्य के शरीर एवं बुद्धि के समन्वय के कारण उत्पन्न हुई, मन:स्थिति पर आश्रित हैं। इसी मानस् तात्विक स्थिति को नामरूप कहा गया है जो शरीर एवं बुद्धि के साथ कार्य करने की शक्ति को स्पष्ट करता है। चेतना के बिना नामरूप नहीं हो सकते अर्थात् चेतना (विज्ञान) ही नामरूप का हेतु है। चेतना से तात्पर्य किसी वस्तु विशेष के बारे में सोचने वाली विचारधारा है और चेतना का आधार संस्कार माना गया। कर्म के अनुसार निर्मित संस्कार से विज्ञान या चेतना संभव होती है। संस्कार की उत्पत्ति के विषय में बुद्ध की धारणा थी कि इसका एकमात्र कारण अविद्या (अविज्जा) है। क्षणिक विषयों को सुखद समझ लेना ही अविद्या है। अविद्या के नाश से ही संस्कार नष्ट होंगे। इसी क्रम से मनुष्य की जन्म, मृत्यु या दु:ख से मुक्ति संभव मानी गई।
प्रतीत्य समुत्पाद प्रक्रिया के अन्तर्गत यदि दु:ख के कारण को नष्ट कर दिया जाये तो दु:ख निरोध संभव है। अविद्या के निरोध से दु:ख को नष्ट किया जा सकता है क्योंकि अविद्या से ही तृष्णा उत्पन्न होती है और तृष्णा जिसके फलस्वरूप पुनर्जन्म होता है एवं नवीन चेष्टायें उत्पन्न होती हैं। इसको संसार का दुश्चक्र (भव चक्र) कहा गया।
दु:ख निरोध का मार्ग- संसार में दु:ख है, दु:ख समुदाय है। उसी प्रकार दु:ख से मुक्ति का मार्ग भी है। अविद्या एवं तृष्णा से उत्पन्न मनोवृत्तियों के निरोध का विधान भी है। तृष्णा से ही आसक्ति तथा राग का उद्भव होता है। रूप, शब्द, गंध, रस तथा मानसिक तर्क-वितर्क आसक्ति के मौलिक कारण हैं। दु:ख के निवारण के लिए तृष्णा का उन्मूलन आवश्यक है। धम्मपद में कहा गया है कि तृष्णा से शोक उत्पन्न होता है, भय की बात ही क्या। बुद्ध ने भिक्षुओं को निर्देशित किया है कि रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार एवं विज्ञान का निरोध ही दु:ख का निरोध है। कहा गया है कि इच्छाओं का परित्याग ही मुक्ति का मार्ग है एवं इच्छाओं का परित्याग अष्टांगिक मार्ग द्वारा किया जा सकता है। अष्टांगिक मार्ग को दु:ख निरोधगामिनी प्रतिपदा भी कहा जाता है। अष्टांगिक मार्ग को तीन स्कन्ध में विभक्त किया जाता है – प्रथम प्रज्ञा स्कन्ध में सम्यक् दृष्टि, सम्यक् संकल्प एवं सम्यक् वाक सम्मिलित किये गये हैं। सम्यक् कर्मान्त, सम्यक् आजीव शील स्कन्ध के अन्तर्गत रखे गये हैं। समाधि स्कन्ध में सम्यक् व्यायाम, सम्यक् स्मृति एवं सम्यक् समाधि आते हैं।
सत्य एवं असत्य तथा सदाचार एवं दुराचार का विवेक द्वारा चार आर्य सत्यों का सही परीक्षण करना सम्यक् दृष्टि है। इसे नीर-क्षीर विवेक भी कहा जा सकता है। अविद्या के कारण मिथ्या दृष्टि उत्पन्न हो जाती है जिसे समाप्त किया जाना होता है। सब वस्तुएँ अनित्य हैं, इस तरह जब प्रज्ञा से मनुष्य देखता है तो वह दु:खों से विरक्ति को प्राप्त होता है, यही विशुद्धि का मार्ग है। इच्छा एवं हिंसा की भावना से मुक्त संकल्प को सम्यक् संकल्प कहा गया। आर्य सत्यों के अभिज्ञान मात्र से लाभ नहीं होता जब तक उनके अनुसार जीवन यापन करने का दृढ़ संकल्प न किया जाये। धम्मपद में विवेचन मिलता है कि युवा होकर भी जो आलसी हैं जिसके मन और संकल्प निर्बल हैं ऐसा व्यक्ति प्रज्ञा के मार्ग को प्राप्त नहीं करता।
सत्य, विनम्र एवं मृदुता से समन्वित वाणी को सम्यक् वाक् कहा गया। उल्लेख मिलता है कि मिथ्यावादिता, निद्रा, अप्रिय वचन तथा वाचालता से बचना चाहिए। वाणी की रक्षा करने, मन से संयमी बनने एवं शरीर से बुरा कार्य न करने को शुद्धि का मार्ग बताया है।
सम्यक् सकल्प को वचन में ही नहीं वरन् कर्म में भी परिणत करना चाहिए अर्थात् सत्कर्मों में संलग्न होना ही सम्यक् कर्मान्त है। दूसरे शब्दों में अहिंसा, अस्तेय, इन्द्रिय संयम ही सम्यक् कर्म है। किया हुआ वह कर्म अच्छा होता है जिसको करके मनुष्य को सन्ताप नहीं होता। जीवन-यापन की विशुद्ध प्रणाली को सम्यक् आजीव कहा है अर्थात् मन, वचन एवं कर्म के शुद्ध उपाय से जीविकोपार्जन करना है। किन्तु इसका अभिप्राय भिक्षु एवं गृहस्थ के लिए अलग-अलग था।
सम्यक् व्यायाम के बारे में विवरण मिलता है कि व्यक्ति को पुराने बुरे भावों का नाश, नवीन बुरे भावों का अनाविभाव, मन को उत्तम कायों में लगाना एवं शुभ विचारों को धारण करने की चेष्टा करनी चाहिए। सम्यक् व्यायाम से तात्पर्य विशुद्ध एवं विवेकपूर्ण प्रयत्न है।
सम्यक् स्मृति से मनुष्य सभी विषयों से विरक्त हो जाता है एवं सांसारिक बन्धनों में नहीं पड़ता। बौद्ध व्यवस्था में स्मृति के चार रूप माने गये हैं। प्रथम कायानुपश्यना से तात्पर्य शरीर की प्रत्येक चेष्टा को समझते रहना। दूसरी चितानुपश्यना है अर्थात् चित्त के राग-द्वेष आदि पहचानना। तीसरी वेदनानुपश्यना से अभिप्राय दु:ख एवं सुख दोनों ही अनुभूतियों के प्रति सजग रहना। चतुर्थ धर्मानुपश्यना अर्थात् शरीर, मन, वचन की प्रत्येक चेष्टा को समझना।
चित्त की एकाग्रता को समाधि कहा गया है। समाधि द्वारा पुराने क्लेश जड्-मूल से नष्ट हो जाते हैं और तृष्णा एवं वासनाओं से मुक्ति मिलती है तथा सत्वगुण की वृद्धि होती है। इसमें मनुष्य को अपने मन को नियन्त्रित करने का अभ्यास करना होता है। मन की चंचलता पर संयम पा लेने पर ज्ञान में एकाग्रता बढ़ती है। बौद्ध दर्शन में समाधि के कुछ स्तरों का उल्लेख मिलता है उग्रचार समाधि एवं अप्यना समाधि आदि।
निर्वाण- बुद्ध ने उनके उपदेशों को विचारपूर्वक ग्रहण करने की आज्ञा दी थी, क्योंकि प्रत्येक मनुष्य को अपना निर्वाण स्वयं को प्राप्त करना होता है। ज्ञान को आन्तरिक अवस्था में परिणत करने के लिए प्रज्ञा, शील, समाधि आवश्यक है एवं सत्य का साक्षात्कार तब तक नहीं हो सकता जब तक विचार एवं कर्म का संयम न हो। शील एवं समाधि की अवस्था को स्पष्ट करते हुए दासगुप्त ने लिखा है– हम अन्तर और बाहर से तृष्णा के पाश से जकड़े हुए हैं (तन्हाजटा) और इससे छुटकारा पाने का उपाय केवल यह है कि हम जीवन में उचित (शील) के ध्यान, समाधिज्ञान (प्रज्ञा) को स्थान दें। संक्षेप में शील का अर्थ है पाप कमों से दूर रहना। अत: सर्वप्रथम शील को धारण करना आवश्यक है। शील का धारण करने से दुर्वासनाओं से उत्पन्न दुष्कमों से दूर रहने के कारण भय और चिन्ता से मुक्ति होती है। शील के पश्चात् समाधि की क्रिया प्रारम्भ होती है। समाधि के द्वारा पुराने क्लेश जड़मूल से नष्ट हो जाते हैं और तृष्णा और वासनाओं से मुक्ति मिलती है एवं सत्त्वगुण की वृद्धि होती है। इसके द्वारा ज्ञान की प्राप्ति होती है और ज्ञान से मुक्ति प्राप्ति होती है जिसको अर्हत् कहते हैं। बौद्ध धर्म का एक मात्र लक्ष्य निर्वाण प्राप्त करना है। सामान्यत: इसका अभिप्राय जीवन-मृत्यु के चक्र से विमुक्ति माना है। हिरियन्ना ने निर्वाण की व्याख्या करते हुए लिखा है कि यह वास्तव में किसी मरणोत्तर अवस्था का सूचक नहीं है। यह तो उस अवस्था का सूचक है जो व्यक्ति के जीवित रहते हुए पूर्णता की प्राप्ति के बाद आती है। यह ऐसी अवस्था है जिसमें सामान्य जीवन की संकीर्ण रूचियाँ समाप्त हो गई होती हैं और व्यक्ति पूर्ण शान्ति और समत्व का जीवन बिताता है। यह मन की एक विशेष वृत्ति का सूचक है और वह जो इस वृत्ति को प्राप्त कर चुका है, अहत् कहलाता है, इसका अर्थ है योग्य या पावन।
निर्वाण का तात्पर्य परमज्ञान भी माना जाता है, यह तृष्णा या आसक्ति से मुक्त होने का अभिज्ञान है, जिसे पूर्ण विशुद्धि भी कहा है। निर्वाण की प्राप्ति इस जीवन में भी संभव है, जैसा हिरियन्ना ने लिखा है कि कुछ विद्वान् इस अवस्था को अनिर्वचनीय मानते हैं तथा इसके अस्तित्व के विषय में मौन हैं तथा इसका शाब्दिक अर्थ दु:ख से मुक्ति माना गया। थॉमस ने निर्वाण तथा परिनिर्वाण में भेद किया तथा निर्वाण इसी जीवन काल में तथा परिनिर्वाण मृत्यु के बाद संभव माना गया। निर्वाण की प्राप्ति के बाद पुनर्जन्म एवं उत्पन्न होने वाले दुःख संभव नहीं होते क्योंकि जन्म ग्रहण करने के लिए आवश्यक कारण नष्ट हो जाते हैं। बौध धर्मावलम्बन हेतु व्यक्ति भिक्षु बनकर (संघ में प्रवेश) या गृहस्थ साधक के रूप में रह सकता है। किन्तु निर्वाण सामान्यतः भिक्षु बनने पर ही संभव माना है। अर्हत् की अवस्था का विवेचन धम्मपद में मिलता है, जिसका मार्ग समाप्त जो शोक रहित तथा सर्वथा विमुक्त है, सब ग्रन्थियों से छूट चुका सन्ताप नहीं। उसका मन शान्त एवं वाणी तथा कर्म शान्त होते हैं।
कर्म- बौद्ध दर्शन में कर्म सिद्धान्त को स्वीकार किया है। मिलिन्दपन्हो में नागसेन कहते हैं कि मनुष्य अपने कर्मों के अनुसार सुख-दु:ख का भोग करते हैं। कर्म-फल से ही मनुष्य कुछ दीर्घजीवी एवं कुछ अल्पजीवी, स्वस्थ-अस्वस्थ, -कुरूप, धनी-निर्धन होते हैं दीन। सब अपने कर्मों का ही फल प्राप्त कर रहे हैं। परन्तु कर्म-फल इस जीवन में अथवा अन्य जीवन में तभी प्राप्त होता है जब मनुष्य राग, द्वेष एवं मोह-बन्धन में फंसा रहता है। लोभ एवं मोह का परित्याग कर मनुष्य जब अपरिग्रह का मार्ग ग्रहण करते हुए निष्काम कार्य करता है तब कर्म स्वत: समूल नष्ट हो जाते हैं। तृष्णा के अभाव में स्वयं कर्म विकसित नहीं हो सकता। तृष्णा के प्रति विरक्त होने एवं इसका परित्याग करने पर ही दु:ख से मुक्ति संभव मानी गई। वासना का नाश होने पर अहत् पद प्राप्त होता है और उसके पश्चात् उसके किये हुए कर्मों का फल प्राप्त नहीं होता, उसके कर्म नष्ट हो जाते हैं। पूर्व जन्म के कर्म-शेष रहने पर भी अर्हत् तृष्णा हो जाता है क्योंकि कामना के कारण ही कर्म फल मिलता है। वासना के नष्ट हो जाने पर अज्ञान, राग द्वेष एवं लोभ का भी नाश हो जाता है। कर्म 3 प्रकार के कहे गए हैं- मानसिक, शारीरिक (कायिक) तथा वाचिक (वाणी द्वारा किए गए कार्य)। अर्हत पद प्राप्त होने पर कोई कामना शेष नहीं रह जाती है उसके शरीर एवं वाणी से किये कर्म का कोई फल नहीं होता। बुद्ध ने कर्म के आधार पर ही चरों वर्णों के लिए मुक्ति का प्रतिपादन किया। उनकी धरना थी की मनुष्य चाहे वह ब्राहमण हो, क्षत्रिय हो, वैश्य हो अथवा शूद्र हो, सम्यक कर्म करने से मोक्ष का अधिकारी होगा।
अनात्मवाद- बुद्ध ने आत्मा को अनावश्यक कल्पना मानकर उसका निषेध करते हुए मात्र चेतना की अवस्था को स्वीकार किया। बुद्ध की मान्यता थी कि संसार अनित्य, क्षणिक एवं दु:ख रूप है जो दु:ख रूप है वह आत्मा नहीं हो सकती। इस तथ्य को अन्य लोगों (अबौद्धों) ने भी मान लिया कि पृथ्वी, जल, तेजस तथा वायु अर्थात् चार भूतों से निर्मित देह आत्मा नहीं है और अपनी आत्मा को चित्त के रूप में स्वीकार किया गया। तथापि विद्वानों की धारणा है अप्रत्यक्ष रूप से बुद्ध संभवत: आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार करते थे किन्तु इस तथ्य को अभिव्यक्त नहीं करना चाहते थे। आत्मा सम्बन्धी प्रश्न पूछे जाने पर बुद्ध मौन रहे, तदुपरान्त आनन्द को कहा कि- आत्मा की अस्वीकृति से भौतिक वादियों के नास्तिकवाद का समर्थन होता है और आत्मा की स्वीकृति से शाश्वतवाद का, वस्तुत: दोनों ही मिथ्या धारणाये हैं। इस सन्दर्भ में हिरियन्ना ने लिखा है कि बौद्ध धर्म आत्मा का ऐसी स्थायी सत्ता के रूप में, जो बदलती हुई शारीरिक और मानसिक अवस्थाओं के बीच स्वयं अपरिवर्तित बनी रहे, अवश्य निषेध करता है, पर उसके स्थान पर एक तरल आत्मा को स्वीकार करता है, जिसे अपने तरलत्व के कारण ही परस्पर बिल्कुल पृथक और असमान अवस्थाओं की सन्तान नहीं माना जा सकता। इस प्रकार बुद्ध इस दृष्टि से भी मध्यमा प्रतिपदा का अनुगमन करते हुए आत्मा की स्वीकृति एवं अस्वीकृति पर सामान्यत: मौन रहे। जगत् नश्वर है अत: अनात्मवाद के विवेचन का अभिप्राय है कि सम्पूर्ण अनुभूत जगत् में आत्मा नहीं है। आत्मा को स्वीकार नहीं किये जाने के कारण का उल्लेख करते हुए कुछ विद्वानों ने लिखा है कि बुद्ध आत्मवाद का प्रचार करते तो संभवत: जनता में अपने प्रति आसक्ति उत्पन्न होती जो दुःख का मूल कारण है। इसके विरुद्ध अनात्मवाद का प्रचार करने पर मृत्योपरांत कुछ शेष नहीं रहना मानव के मानसिक त्रास का कारण बनता है। डॉ. राधाकृष्णन की मान्यता थी कि महात्मा बुद्ध आत्मा में विश्वास करते थे।
पुनर्जन्म- बौद्ध धर्म पुनर्जन्म में विश्वास करता है, किन्तु इसमें नित्य आत्मा अस्तित्व स्वीकार नहीं किया है। अत: यह विचार परस्पर विरोधी है। कहा गया है कि कर्ता के बिना कर्म हो सकता है तो आत्मा के बिना भी पुनर्जन्म हो सकता है। बौद्ध धर्म में न केवल जीवन समाप्ति के बाद पुनर्जन्म माना गया बल्कि प्रतिक्षण पुनर्जन्म को स्वीकार किया है। पुनर्जन्म मृतव्यक्ति का नहीं होता बल्कि उसी के संस्कार वाले दूसरे व्यक्ति का जन्म हो सकता है। मृत्यु के बाद व्यक्ति का चरित्र बना रहता है एवं अपनी मानसिक शक्ति से अन्य व्यक्ति को जन्म देता है अर्थात् आत्मा का पुनर्जन्म न होकर चरित्र का होता है। यह प्रक्रिया तब तक चलती रहती है जब तक कि तृष्णा पर विजय प्राप्त न कर ली जाये। हिरियन्ना ने कहा है जो भी हो बुद्ध ने इस सिद्धान्त को एक बड़ी सीमा तक तर्क संगत बना दिया– इससे जुड़े हुए अलौकिक और भौतिकवाद के तत्त्व बिल्कुल निकाल दिये। बुद्ध ने इन दोनों मतों को अस्वीकार कर दिया और कर्म को नैतिकता के क्षेत्र में अपनी ही प्रकृति के अनुसार स्वतंत्रतापूर्वक काम करने वाला एक अपौरुषेय नियम माना।
अनीश्वरवाद- सृष्टि कर्ता के रूप में बुद्ध ने ईश्वर को स्वीकार नहीं किया क्योंकि ऐसा करने पर ईश्वर को दु:ख का सर्जक भी मानना होगा। यद्यपि कुछ विद्वान् बुद्ध को नितान्त अनीश्वरवादी नहीं मानते बल्कि नितान्त कर्मवादी होने के कारण एवं मानव जाति को जटिल सवालों से दूर रखने के लिए ईश्वर सम्बन्धी प्रश्नों का विवेचन अनावश्यक समझा। डॉ. राधाकृष्णन की मान्यता है कि- ईश्वर को अनिर्वचनीय परम तत्त्व के रूप में स्वीकार किया जाये तो चार्वाक को छोड़कर किसी भी भारतीय दर्शन को अनीश्वरवादी नहीं कहा जा सकता।
प्रयोजनवाद- यथार्थवादी बुद्ध ने जीवन के ठोस तथ्यों को स्वीकार करने के लिए प्रेरित किया। यद्यपि उनके उपदेशों में परलोक का विवेचन मिलता है। ऐसा करना संभवतः कर्म सिद्धान्त की स्वीकृति हेतु अपेक्षित था, तथापि बुद्ध जिस वस्तु के विषय में प्रत्यक्ष रूप से ज्ञान न हो उसका बहिष्कार करना उचित समझते थे। उन्होंने वेद प्रमाण्य एवं यज्ञ प्रक्रिया को भी अस्वीकार किया अर्थात् वे प्रत्यक्ष एवं तर्क के दायरे के बाहर किसी भी तथ्य की स्वीकृति के लिए सहमत नहीं थे। इस दृष्टि से बुद्ध को प्रयोजनवादी भी कहा जाता है, क्योंकि उनके उपदेश उन्हीं विषयों से सम्बद्ध थे जिन्हें मानव कल्याण के लिए आवश्यक समझा गया। महात्मा बुद्ध ने लोक, जीव, परमात्मा, आत्मा सृष्टि सम्बन्धी अनेक विवादों को अप्रयोज्य मानते हुए दस अकथनीय सिद्धान्तों का विवेचन किया। लोक से सम्बन्धित तथ्य है- क्या लोक नित्य है; अनित्य है, शान्त है, अनन्त है? इसी प्रकार जीव से सम्बद्ध तथ्य है- क्या जीव एवं शरीर एक हैं अथवा- भिन्न हैं, क्या मृत्यु के बाद तथागत होते हैं या नहीं होते हैं? वस्तुतः बौद्ध में आदर्शवाद एवं यथार्थवाद का व्यवहारपरक संयोजन देखा जाता है। बुद्ध जीवन को दु:खमय पाया। अत: उससे बचना आवश्यक है साथ ही दु:ख से बचने के उपायों की चर्चा की। किन्तु बुद्ध के उपदेशों को दु:खवादी कहने का तात्पर्य यह नहीं कि वे निराशावाद की ओर उन्मुख करने वाले हैं क्योंकि अहत् की अवस्था इस लोक एवं जीवन में शान्ति की संभावना को स्वीकार करती है।
बुद्ध ने सर्वप्रथम अपने साथी पाँच ब्राह्मणों को उपदेश दिया एवं अपना शिष्य बनाया – कोडन्न, वप्प, भद्दिय, महानाम एवं अस्सजि। तदनन्तर बनारस के धनी व्यापारी के पुत्र यश ने बौद्धत्व स्वीकार किया। ऋषिपतन के भद्र ने भी 30 युवाओं के साथ दीक्षा ग्रहण की थी। अन्य प्रमुख शिष्यों में कस्सप, राहुल (बुद्ध का पुत्र), नन्द (मौसेरा भाई), अनुरुद्ध, आनन्द, उपालि, अनुप्रिय, देवदत्त, सुदत्त (अनाथपिण्डक) आदि। अनाथपिण्डक जो श्रावस्ती का श्रेष्ठी था, ने राजगृह में आकर दीक्षा ग्रहण की थी। उसने श्रावस्ती में लौटकर राजकुमार जेत के एक सम्पूर्ण उद्यान में बिछायी जाने की तादाद में मुद्रायें तेज कुमार को प्रदान कर उसका उद्यान खरीद लिया था और वह उद्यान महात्मा बुद्ध को उसने भेंट किया था। आनन्द के आग्रह पर मौसी महाप्रजापति, भट् कच्चाना (यशोधरा) आदि महिलाओं को कुछ प्रतिबन्ध के साथ, भिक्षुओं से कम महत्त्वपूर्ण स्थान प्रदान करते हुए, संघ में प्रवेश की स्वीकृति प्रदान की थी।
बौद्ध अनुयायी दो प्रकार के थे- गृहस्थ एवं भिक्षु। संघ में 15 वर्ष से ऊपर के स्त्री, पुरुषों के लिए प्रवेश बिना किसी जातीय भेदभाव के खुला था। किन्तु दण्डापराधी, कोढ़ी, रोगी एवं दास इससे वंचित थे। प्रवेश पाने के इच्छुक व्यक्ति को अपना एक गुरू बनाना होता था जो उसे संघ में प्रवेश दिलाने हेतु भिक्षुओं के अधिवेशन में प्रस्ताव रखता था। सभा से स्वीकृति मिलने पर उसे दीक्षा दी जाती थी एवं सदाचार पूर्ण जीवनचर्या के नियम समझाये जाते थे। इसके साथ ही उसे बौद्ध ग्रंथों का अध्ययन भी अपने गुरू के निर्देशन में करना होता था। भिक्षुओं के दैनिक कार्य धर्म के निश्चित अध्यादेशों से नियंत्रित थे। संघ के विधान की अवज्ञा के लिए दण्ड का प्रावधान था। बौद्ध संघ के नियम बनाये जाने का अधिकार संस्थापक को दिया गया। बौद्ध संघ में अनेक स्थानीय संघ थे किन्तु उनका कोई केन्द्रीय संगठन नहीं था। परस्पर स्थानीय संघों में मत-वैभिन्य की अवस्था में समस्त संघों का अधिवेशन आमन्त्रित किया जाता था जिसे संगीति कहा जाता था। बुद्ध के निधन के पश्चात् राजगृह में प्रथम संगीति का आयोजन हुआ जिसमें उनकी शिक्षाओं का संग्रह किया गया। एक संघ के सदस्य को दूसरे संघ में स्वत: सदस्य मान लिया जाता था। संघ के समस्त महत्त्वपूर्ण निर्णय मतदान द्वारा किये जाते थे अर्थात् संघ का संचालन लोकतान्त्रिक सिद्धान्तों से संचालित होता था। समस्त सदस्यों के अभाव में सभा का आयोजन नहीं किया जाता था। किसी भी भिक्षु को संघ में अनुपस्थित रहने की स्थिति में अपना मत व्यक्त करके जाना होता था। परिषद् प्रत्येक भिक्षुक को उसके पापों के लिए दण्डित करने के लिए अधिकृत थी। संघ के दैनिक कायों के संचालन के लिए अनेक अधिकारियों की नियुक्ति की जाती थी।
भिक्षुणियों का अलग वर्ग होता था, जिसे भिक्षुओं के संघ के अधीन समझा जाता था। महात्मा बुद्ध की मान्यता थी कि महिलाओं के संघ में प्रवेश से धर्म अधिक काल तक जीवित नहीं रह सकता और संघ में भिक्षुणियों को निम्न स्थान प्रदान किया गया।
बौद्ध दर्शन- महात्मा बुद्ध ने बहुत ही व्यावहारिक दर्शन देने की कोशिश की है। वे आत्मा एवं ब्रह्म से संबंधित विवाद में नहीं उलझना चाहते थे। उन्होंने आत्मा की सत्ता को अस्वीकार कर दिया। भारतीय धर्म के इतिहास में यह एक क्रांतिकारी कदम था। सृष्टि के विषय में बौद्ध धर्म की अलग मान्यता है। वह यह कि सृष्टि दुखमय है, यह सृष्टि क्षणिक है और सृष्टि आत्माविहीन है। बौद्ध धर्म का मानना है कि आत्मा नहीं है और जिसे हम एक व्यक्ति के रूप में जानते हैं वस्तुत: वह भौतिक एवं मानसिक तत्वों के पाँच स्कधों से निर्मित है। जो निम्नलिखित हैं- 1. रूप, 2. संज्ञा, 3. वेदना, 4. विज्ञान और 5. संस्कार।
बौद्ध, धर्म, कर्म एवं पुनर्जन्म के सिद्धांत में विश्वास करता है। बौद्ध धर्म के अनुसार, प्रत्येक कार्य का एक कारण होता है और प्रत्येक कारण का एक कार्य। महात्मा बुद्ध ने कार्य-कारण श्रृंखला के 12 तत्वों को उद्घाटित किया है- 1. अविद्या, 2. संस्कार, 3. विज्ञान, 4. नामरूप, 5. षडायतन (अर्थात् मन सहित पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ), 6. स्पर्श, 7. वेदना, 8. तृष्णा, 9. उपादान, 10. भव, 11. जाति और 12. जरा-मरण।
प्रत्युतसमुत्पाद- इस दर्शन की मान्यता है कि जिस तरह दुख का कारण जन्म है, उसी तरह जन्म का कारण कर्म-फल रूपी चक्र है। बौद्ध दर्शन में नैरात्मवाद एवं क्षणभंगवाद भी महत्वूर्ण है। महात्मा बुद्ध ने चार आर्य सत्यों पर बल दिया है-
दुख है, दुख का कारण है, दुख का निदान है और दुख के निदान के उपाय हैं। वह निदान है आष्टांगिक मार्ग, जो निम्नलिखित हैं-
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बौद्ध दर्शन में यह सृष्टि विभिन्न चक्रों में विभाजित है। उसमें एक बुद्ध चक्र होता है तो दूसरा शून्य चक्र। हम भाग्यशाली हैं कि हम बुद्ध चक्र में हैं। इनमें चार बुद्धों ने उपदेश दिया– 1. क्रकच्छन्दा, 2. कनक मुनि, 3. कश्यप, 4. शाक्य मुनि, 5. मैत्रेय (आने वाले बुद्ध)। बौद्ध धर्म में त्रिरत्न हैं – बुद्ध, संघ और धर्म। बौद्ध धर्म में दस शील भिक्षुओं के लिए तथा पाँच गृहस्थों के लिए हैं।
ये दस शील इस प्रकार हैं- अहिंसा, सत्य, अस्तेय, अपरिग्रह, ब्रह्मचर्य, नृत्य गान का त्याग, श्रृंगार-प्रसाधनों का त्याग, समय पर भोजन करना, कोमल शय्या का व्यवहार नहीं करना एवं कामिनी कांचन का त्याग।
प्रथम बौद्ध संगीति- यह बुद्ध की मृत्यु के बाद राजगृह में अजातशत्रु के काल में हुई। इसकी अध्यक्षता महाकस्सप नामक आचार्य ने की। इस संगीति में उपालि ने विनयपिटक का पाठ किया और आनन्द ने सुतपिटक का।
दूसरी बौद्ध संगीति- यह लगभग बुद्ध की मृत्यु के 100 साल बाद वैशाली में हुई। उस समय वैशाली का शासक कालाशोक था। इसकी अध्यक्षता स्थविर यश या सर्वकामिनी ने की। इस सम्मेलन में दो गुटों के बीच तीव्र मतभेद उभरा।
पूर्वी गुट और पश्चिमी गुट के बीच। पूर्वी गुट में वैशाली तथा मगध के भिक्षु थे पश्चिम गुट में अवन्ति के भिक्षु थे। पूर्वी गुट वज्जिपुतक कहलाए। अनुशासन के दस नियमों पर मतभेद उभरा। पूर्वी गुट महासंघिक या आचार्य वाद कहलाने लगा। पश्चिमी गुट थेरवादी। अंत में तहरवाद 11 पंथों में साहसिक और महासंघिक 7 पंथों में विभाजित हो गए। ये मूल रूप में हीनयानी पंथी थे किन्तु उनमें से कुछ ने कुछ इस प्रकार के सिद्धांतों को अपनाया जो महायान के उत्थान के लिए उत्तरदायी सिद्ध हुआ। महासांघिक संप्रदाय के अनुयायी यह स्वीकार करते थे कि प्रत्येक व्यक्ति में बुद्धत्व प्राप्ति की स्वामानिक शक्ति है। समय और संयोग से सभी को बुद्धत्व मिल सकता है। वस्तुत: प्राप्ति के नौ भेद माने गए- मूल महासंघिक, एक व्यवहारिक, लोकोत्तरवाद, कौरू कुत्लका, बहुश्रुतीय, प्रज्ञातिवाद, चैत्य-शैल, अवर शैल, और उत्तर शैल। तिब्बती परंपरा के अनुसार महकच्चायन ने थेरवाद संप्रदाय की स्थापना की। राहुलभद्र नामक आचार्य ने थेरवाद के एक उपसंप्रदाय, सर्वास्तिवादी की स्थापना की। सर्वास्तिवादी संप्रदाय को बाद में वैभेषिक के नाम से जाना जाने लगा। महासंघिका संप्रदाय प्रारंभ में वैशाली में और फिर समस्त उत्तर भारत में फैल गया। बाद में इसका प्रसार आंध्रप्रदेश में हुआ और इसका महत्वपूर्ण केद्र अमरावती और नागर्जुनकोंडा हो गया।
तीसरी बौद्ध संगीति- यह अशोक के समय पाटलिपुत्र में हुई। इसकी अध्यक्षता मोगालिपुत्त तिस्स ने की। तीसरे बौद्ध संगीति को थेरवादियों की सभा विचारों का मोगालिपुत्त तिस्स ने महासांघिक मतों का खण्डन करते हुए अपने ही सिद्धान्तों को बुद्ध के मौलिक सिद्धान्त घोषित किया। उन्होंने कथावत्थु नामक ग्रन्थ का संकलन किया जो अभिधम्म पिटक के अंतर्गत आता है। इस प्रकार बुद्ध की शिक्षाओं के तीन भाग हो गए- सत्त, विनय तथा अभिधम्म। इन्हें लिपिटक की संख्या दी जाती है। इस सम्मेलन की प्रामाणिकता संदिग्ध मानी जाती है क्योंकि अशोक के किसी अभिलेख में इसकी चर्चा नहीं है।
चौथी बौद्ध संगीति- यह कश्मीर के कुंडलवन में हुई। इसके लिए पार्श्व नामक विद्वान् ने कनिष्क को परामर्श किया। वसुमित्र इसका अध्यक्ष था जबकि उपाध्यक्ष अश्वघोष था। ह्वेनसांग और लामा तारानाथ ने भी इस सम्मेलन की चर्चा की है। माना जाता है कि एक सर्वास्तिवादी संप्रदाय के भिक्षु कात्यायन पुत्र ने कश्मीर जाकर 500 बोधिसत्व की सहायता से महाविभाष नामग ग्रंथ की रचना की। इसी सम्मेलन में हीनयान और महायान में विभाजन हुआ। हीनयान के कुछ महत्वपूर्ण उपसंप्रदाय-
- स्थविरवादी संप्रदाय (थेरवादी) – परंपरागत धर्म।
- सांची का बौद्ध विहार इस संप्रदाय से जुड़ा है।
- सर्वास्तिवादी- यह मथुरा और कश्मीर क्षेत्र में लोकप्रिय था। इसका सिद्धांत संस्कृत में है। यह स्थविरवादियों से इस रूप में भिन्न है कि इसका यह मानना है कि दृश्य जगत के धर्म पूर्णतः क्षणिक हैं। प्रत्युत सदा अन्तर्निहित रूप में विद्यमान रहते हैं।
- सौत्रान्तिक- इसकी धारणा है कि बाह्य जगत संबंधी हमारा ज्ञान एक संभव अनुमान मात्र है। इस सम्प्रदाय का मुख्य आधार सूत्र (सुत्त) चिटक है। सौत्रान्तिक चित्त तथा बाह्य जगत दोनों में विश्वास करते है। किन्तु वे यह नहीं मानते कि वस्तुओं का ज्ञान प्रत्यक्ष रूप से होता है।
- समित्या- इसने यहाँ तक प्रगति की कि उसने आत्माभाव के सिद्धांत को अस्वीकार कर दिया और शरीर में एक ऐसी आत्मा की परिकल्पना की कि जो एक जीवन से दूसरे जीवन में चली जाती है।
महायान बौद्ध धर्म
महात्मा बुद्ध अपने सिद्धांतों का अधिकाधिक प्रचार करना चाहते थे। उन्होंने अपने अनुयायियों को विभिन्न दिशाओं में बौद्ध धर्म के प्रचार का निर्देश दिया था। स्वयं बुध ने भी ज्ञान प्राप्ति के बाद आजीवन अपने सिद्धांतों का प्रचार किया। बुद्ध की प्रेरणा एवं बौद्ध धर्मानुयायियों के सदस्य उत्साह, अपूर्व लगन एवं निष्ठा से बौद्ध धर्म का प्रचार सभी दिशाओं में तेजी से होने लगा और बौद्ध धर्म की अत्यंत द्रुत गति से न केवल भारत बल्कि विदेशों में भी फैल गया। बौद्ध धर्म के प्रचार और विकास में बौद्ध संघ व्यवस्था और संगीतियों का विशिष्ट योगदान रहा। तत्कालीन गणराज्यों में प्रचलित संघ व्यवस्था को ही महात्मा बुद्ध ने अपनाया था। बौद्ध धर्म के विकास और विस्तार में चार सभाओं (संगीतियों) का महत्वपूर्ण योगदान रहा। इस सभा के बाद बौद्ध धर्म के प्रचारार्थ विभिन्न देशों में भिक्षुओं को भेजा गया। सम्राट् अशोक के प्रयासों एवं सहयोग से बौद्ध धर्म का प्रसार पश्चिमी और दक्षिणी एशिया में संभव हुआ। चतुर्थ संगीति सम्राट् कनिष्क के समय में आयोजित की गई। इसमें त्रिपिटकों पर विभाषाशास्त्र (महाविभाषा) की संस्कृत में रचना की गई। कनिष्क की मुद्राओं पर बुद्ध तथा अन्य देवताओं की आकृतियों का अंकन इस तथ्य को इंगित करता है कि बौद्ध धर्म अब अपने मौलिक विचारों से दूर होता जा रहा था। प्राचीन बौद्ध मत के अनुसार, बुद्ध मानव जगत के पथ प्रदर्शक मात्र थे। परन्तु धीरे-धीरे उनका स्थान देवपरक हो चला था। वे (बुद्ध) देवरूप माने जाने लगे, जिन्हें उपासना द्वारा प्राप्त किया जा सकता था। उनके चतुर्दिक बोधिसत्वों एवं अन्य देव परिवार का आविर्भाव हुआ। इसमें संदेह नहीं कि आवागमन के बन्धन से मुक्ति प्राप्ति के प्रयास का प्राचीन आदर्श अब भी जीवित था। इस विचार का भी आविर्भाव हो चला था कि प्रत्येक मनुष्य अपना लक्ष्य बुद्धत्व प्राप्ति कर सकता है और संसार को दु:ख से मुक्त करने के लिए बुद्धत्व प्राप्त कर सकता है।
हीनयान और महायान में अन्तर-
- हीनयान की मानता है कि सभी को अपनी मुक्ति का मार्ग स्वयं ढूंढना होगा और अधिक से अधिक निर्वाण के मार्ग में हम दूसरों की उदाहरण या उपदेश के द्वारा सहायता कर सकते हैं। महायान गुणों के हस्तांतरण में विश्वास करता है।
- हीनयान बुद्ध की ऐतिहासिकता में विश्वास करता है जबकि महायान बोधिसत्व में।
- रूढ़िवादी हीनयान संप्रदाय ने अंर्हत (बोधिसत्व) पद की प्राप्ति के लिए नौचर्याओं एवं दस अनुशासनों का पालन आवश्यक बताया है। किन्तु महायान बौद्ध संप्रदाय ने यह स्थापित किया कि सभी लोगों को बुद्धत्व की प्राप्ति हो सकती है।
- हीनयानियों ने इस संसार को दु:खमय माना है किन्तु महायान आशावादी दृष्टिकोण रखता है। उसके विचार में सभी जीव निर्वाण प्राप्त करेंगे।
- हीनयान स्वयं के प्रयत्नों पर बल देता है, परन्तु महायान बुद्ध के प्रति विश्वास एवं भक्ति पर बल देता है।
- हीनयान बौद्ध धर्म का साहित्य पाली भाषा में है जबकि महायान बौद्ध धर्म का साहित्य संस्कृत भाषा में है। अपवाद मिलिन्दपन्हो नामक ग्रंथ है जो महायान ग्रंथ होकर भी पाली भाषा में है।
इनके अतिरिक्त बौद्ध धर्म के कुछ अन्य महत्वपूर्ण केद्र आंध्रप्रदेश में अमरावती और नागार्जुन कोंड हैं।
- बिहार – नालन्दा
- गुजरात – जूनागढ़ और वल्लभी
- मध्यप्रदेश – सांची और भरहुत
- महाराष्ट्र – एलोरा और अजंता
- उडीसा – धौला
- उत्तर प्रदेश – कन्नौज, कौशांबी और मथुरा
- पं. बंगाल – जगदल और सोमपुरी
प्रतीक- हीनयानियों के लिए महात्मा बुद्ध शिक्षक थे, देवता नहीं। हीनयान में उनका प्रतिनिधित्व निम्नलिखित प्रतीकों के माध्यम से किया जाता था–
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जबकि महायान बौद्ध धर्म में उन्हें मानव रूप में चित्रित किया गया है।
महायान बौद्ध धर्म का विकास- महायान बौद्ध धर्म का विकास के श्रेय नागार्जुन को दिया जाता है। इसमें बौद्ध धर्म में अनेक बोधिसत्व की परिकल्पना की गई है। भौतिक दृष्टि से उनमें सबसे महत्वपूर्ण अवलोकितश्वर है इन्हें पदम्पाणि के नाम से भी जाना जाता है। इसका विशेष गुण दया है और इसकी सहायता का हाथ अविषी तक पहुँचता है, जो बौद्ध धर्म के शुद्ध स्थलों में सर्वाधिक गहन एवं अप्रिय है।
मंजूश्री- दूसरा महत्वपूर्ण बोधिसत्व मंजूश्री है। इसका विशेष कार्य बुद्धि को प्रखर करना है और इसके एक हाथ में नग्न खड्ग एवं दूसरे हाथ में पुस्तक है जिसमें 10 पारमिताओं (आध्यात्मिक पूर्णता) का विवरण है जो बोधिसत्व द्वारा विकसित मूल सद्गुण है। दस पारमिताएँ- 1. दान, 2. शिला, 3. वीर्य, 4. शांति, 5. ध्यान, 6. प्रज्ञा, 7. उपकौशल, 8. परमिद्यान, 9. बल और 10. ज्ञान।
बज्रपाणि- यह अपेक्षाकृत एक कठोर बोधिसत्व है जो पाप एवं असत्य का शत्रु है और इन्द्र देवता की भांति अपने हाथ में वज्र रखता है।
क्षितिगर्भ- यह बोधिसत्व शुद्धि स्थानों का अभिभावक है और एक आदर्श कारागृह का शासन करने वाला माना जाता है।
मैत्रेय- यह आने वाला बोधिसत्व है। इस तरह बुद्ध की कल्पना बोधिसत्व में बदल गई।
सामंतभद्र और भेषैज्यराज भी बोधिसत्व ही हैं लेकिन इनकी कोई विशेषता नहीं है। महायान बौद्ध धर्म में गौतम बुद्ध केवल मनुष्य ही नहीं थे वरन् एक महान अलौकिक प्राण सत्ता की पार्थिव अभिव्यक्ति हैं। उनके तीन शरीर हैं-
- सार का शरीर (धर्मकाया)
- आनन्द का शरीर (संभोग काया)
- सृजित शरीर (निर्वाण काया)
धर्मकाया आदि बुद्ध है, जो संपूर्ण विश्व में व्याप्त है। संभोग काया का स्थल स्वर्ग है। महायान बौद्ध धर्म में उस स्वर्ग को सुखावति कहा गया है। इस स्वर्गिक बुद्ध को अमिताभ या अमितायुष कहा जाता है। आदि बुद्ध (धर्मकाया) को शून्य तत्व बोध अथवा तथागत गर्भ भी कहा जाता है। महायान बौद्ध धर्म के अन्तर्गत दर्शन के दो संप्रदाय विकसित हुए।
शून्यवाद या माध्यमिक दर्शन- इसके प्रणेता नागार्जुन थे। इस सिद्धांत का मानना है कि चूंकि प्रत्येक वस्तु किसी कारण से बनी है, इसलिए वह शून्य है। शून्यवाद दर्शन सापेक्षिकता के सिद्धांत से समानता रखता है। इस दर्शन से संबंधित महत्वपूर्ण ग्रंथ है – माध्यमिकारिका।
विज्ञानवाद या योगाचार- इसके प्रणेता मैत्रयनाथ थे। उसके शिष्य असंग ने इस विचारधारा को स्पष्टता दी। आगे वसुबंधु, दिगनाग और धर्मकींती इस दर्शन से जुड़ गए। असंग द्वारा लिखित सूत्रालंकार इस धर्म से संबंधित प्राचीनतम ग्रंथ है और सबसे महत्वपूर्ण ग्रंथ लंकावतार सूत्र है। इस दर्शन का मानना है कि संसार का निर्माण चेतना ने किया है जो स्वप्न से अधिक वास्तविक नहीं है।
दिगनाग (दार्शनिक)- दिगनाग ने पाँचवी में बौद्ध न्याय का विकास किया। उसके कुछ महत्वपूर्ण ग्रंथ हैं- 1. प्रमाण समुच्चय, 2. न्यायप्रवेश और 3. आलम्बर परीक्षा। धर्मकीर्ति को भारत का कॉण्ट कहा गया है। महायान बुद्ध में एक देव कुल बना जिसमें 5 ध्यानी बुद्ध की कल्पना की गई है। ये हैं- वैरोचन, अक्षोस्य, रत्नसभव, अमिताभ और अमोघ सिद्धि (देवता)। इसमें से प्रत्येक बुद्ध का संबंध एक बोधिसत्व और एक देवी से रहा है जिसका नाम तारा है। महायानी लोग तारा (प्रज्ञा पारमिता) संजूश्री और अवलोकितेश्वर की पूजा करते थे। चीनी तीर्थयात्री इत्सिग ने उन जुलूसों को देखा था जिसमें बुद्ध और बोधिसत्वों की प्रतिमाएँ ले जाई जाती थीं।
वज़यान संप्रदाय- यह तंत्रवाद से प्रभावित था। हीनयान बौद्ध संप्रदाय आत्मनियंत्रण और आत्मविकास के द्वारा निर्वाण की बातें करता था। महायान बौद्ध संप्रदाय बोधिसत्व की कृपा पर बल देता है जबकि वज़यान जादुई शक्ति को प्राप्त करके मुक्त होने की कल्पना करता था। आठवीं शताब्दी में कश्मीर के सर्वज्ञमित्र नामक व्यक्ति ने तंत्रवाद को बौद्ध संप्रदाय में अपनाया था। जादुई शक्ति को वज्र कहा जाता है और इस संप्रदाय को वज्रयान कहा जाने लगा। पुरुष के साथ स्त्री की कल्पना जुड़ गई। अवलोकितेश्वर के साथ प्रज्ञापरमिता और बुद्ध के साथ तारा जुड् गई। निचले स्तर पर कुछ अन्य स्त्रियाँ भी थीं, यथा मातंगी, पिशाची, योगिनी, डाकनी आदि। वज्रयानी साधु गुह्य साधना पञ्चमकार हैं, की साधना करने लगे। पञ्चमकार के अन्तर्गत मांस, मदिरा, मैथुन मत्स्य और मुद्रा। वज्रयान संप्रदाय के अंतर्गत ही 10वीं शताब्दी में एक अन्य संप्रदाय काल चक्रायन अस्तित्व में आया। इसमें सर्वोच्च देवता कालचक्र को माना गया। बंगाल में ही सहजयान पंथ का भी विकास हुआ। नालंदा, विक्रमशीला, सोमपुरी और जगदल्ल् वज्रयान संप्रदाय के महत्वपूर्ण केद्र थे।
वज्रयान उपसंप्रदाय के देवगण- हेरुक एक वज्रयानि देवता हैं जो जो शिव के रौद्र रूप से मिलते हैं। हेरूक के पैर के नीचे शव है। दूसरे देवता यमारी हैं। यह हिंदू देवता यम से समानता रखते हैं जिनका वाहन भैंसा है। एक देवता जम्भल हैं जो हिंदू देवता कुबर से मिलते-जुलते हैं। इनकी पत्नी वसुंधरा है। इसके अतिरिक्त कुछ देवियों की भी चर्चा है यथा, तारा, सरस्वती, अपराजिता, गृहमातृका और छिन्नमस्तिका है। इस काल तक बौद्धों के कतिपय उप-संप्रदाय कुछ उन्नति पर थे। नासिक एवं कन्हेरी में भदियानीय तथा कालें में महासंघिका, सोपारा एवं जुन्नार में धर्मतरीय उपसंप्रदाय था कि तथा अमरावती में चैतकीय था|
बौद्ध संघ- बुद्ध ने अपना उत्तराधिकारी मनोनीत नहीं किया था। उन्होंने घोषणा की कि धर्म और संघ के निर्धारित नियम ही उनके उत्तराधिकारी हैं। बौद्ध संघ की सदस्यता सभी जातियों को सुलभ थी और उसके लिए 15 वर्ष या उससे अधिक उम्र अनिवार्य थी। परन्तु चोरों, अपराधियों, दासों, राजा के सेवकों, कर्जदारों और रोगियों को संघ का सदस्य नहीं बनाया जा सकता था। स्त्रियों के लिए पृथक बौद्ध संघों की स्थापना हुई। बौद्ध धर्म को मानने वाले दो तरह के थे- 1. भिक्षु और 2. उपासक। भिक्षु सन्यासी जीवन व्यतीत करता था और उपासक गृहस्थ जीवन। बौद्ध संघ में 10 प्रकार के नियमों का पालन करना अनिवार्य है। ये दस नियम इस प्रकार है-
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पहले बौद्ध संघ में श्रमण के रूप में सदस्यता प्राप्त होती थी, फिर दस वर्षों के पश्चात् अगर योग्यता स्वीकृत कर ली जाती थी तो उसे भिक्षु का दर्जा दिया जाता था।
उपसम्पदा- बौद्ध संघ में प्रवेश को उपसंपदा कहा जाता था। बौद्ध संघ का यह सिद्धांत था कि संस्थापक के अतिरिक्त कोई अन्य नियम नहीं बना सकता था। दूसरे लोग केवल इसकी व्याख्या कर सकते थे। नये नियम नहीं बना सकते थे। संघ का लोकतांत्रिक स्वरूप था। एक स्थान पर रहने वाले सभी भिक्षुओं की परिषद् सर्वोच्च सत्ता समझी जाती थी और सारी बातें मतदान पर निश्चित होती थी। गुप्त मतदान के आधार पर (शलाका पद्धति) बहुमत प्रस्ताव को स्वीकार या अस्वीकार किया जाता था। भिक्षुओं को तीन महीने तक वर्षा के दिनों में एक ही जगह पर स्थिर रहना पड़ता था जिसे वस्सा (Vassa) कहा जाता था। हर 15वें दिन भिक्षुओं को उपोसथ में अपनी अपराध संहिता (पतिमुख) पढ़नी पड़ती थी और उसके अनुसार अपना अपराध स्वीकार करना पड़ता था। वस्स की समाप्ति पर पवारणा के समय भी सभा में सभी भिक्षुओं से यह पूछा जाता था कि उनसे कोई गलती तो नहीं हुई है।
बौद्ध साहित्य
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आगमेतर बौद्ध साहित्य- आगमों के अतिरिक्त पाली में अन्य ग्रंथ भी लिखे गए हैं। उनमें प्रसिद्ध हैं- मिलिन्दपन्हो। आगमों का सबसे बड़ा टीकाकार बुद्धघोष था। उसने विशुद्धिमग्ग की रचना की। सिंहल द्वीप के महत्वपूर्ण ग्रंथ हैं, दीपवंश और महावंश। ये क्रमश: चौथी एवं पाँचवीं सदी में लिखे गये। यह सिंहल द्वीप का इतिहास ग्रंथ भी है।
महावस्तु- यह लोकोत्तरवादियों का विनय पिटक से संबद्ध ग्रंथ है। लोकोत्तरवादी वैशाली की संगीति में अलग होने वाले महासघिका की एक शाखा है।
महायान संप्रदाय का साहित्य- महायान संप्रदाय से संबंधित वैपुल्यसूत्र है। आरंभिक पुस्तक में ललितविस्तर महत्वपूर्ण है। इसमें बुद्ध के जीवन की कहानी है। यह प्रारंभ में हीनयान संप्रदाय से संबद्ध था। किन्तु आगे चलकर इसकी गणना वैपुल्यसूत्र या महायान सूत्र में होने लगी। वैपुल्य सूत्र महायानियों का आगम है। इसके अंतर्गत निम्नलिखित ग्रंथ हैं- 1. अष्ट सहास्त्रिका प्रज्ञा पारमिता, 2. सधमपुण्डरिक, 3. ललितविस्तर, 4. लकावतार या सधमलकावतार, 5. सुवण प्रभास, 6. गण्डव्यूह, 7. तथागत गुणज्ञान, 8. समाधिराज और 9. दशभुमिश्वरा इन सभी ग्रंथों में सबसे महत्वपूर्ण सधर्म पुंडरिक है। इसमें महायान संप्रदाय की सबसे उल्लेखनीय विशेषता निहित हैं। महायान संप्रदाय की सबसे महत्वपूर्ण दार्शनिक पुस्तक प्रज्ञापारमिता है। पारमिता शब्द का अर्थ, उन गुणों की परम प्राप्ति है जो बुधत्व प्राप्ति के लिए आवश्यक है। महायान साहित्य में दंतकथाओं का बहुत बड़ा भंडार है। इन कथाओं को अवदान कहते हैं। कुछ महत्वपूर्ण अवदान निम्नलिखित हैं- अवदान शतक, दिव्यावदान और क्षेमेन्द्र द्वारा लिखित अवदान कल्पता। कुछ महान् लेखक- अश्वघोष कृत बुद्धचरित सौन्दरानंद, सुत्रालंकार, वज्रसूची, महायन क्षदोत्पाद इस युग की मुख्य रचनाएँ हैं। सारिपुत्र प्रकरण-पहली नाट्यकृति है जो अधूरी है। इसका अंश मध्य एशिया में मिला है।
- नागार्जुन- सहस्त्रिका प्रज्ञापारमिता, आर्यदेव चतुष्टिक
- वसुवन्धु- अमिधर्मकोष
हीनयान और महायान का प्रसार
- हीनयान- श्रीलंका, बर्मा, शयाम, कबोडिया, लाओस।
- महायान- मध्य एशिया और चीन।
- वज्रयान संप्रदाय- चीन, तिब्बत, जापान।
महात्मा बुद्ध की राजनैतिक-सामाजिक दृष्टि- बुद्ध जाति-पाति के विरोधी थे। उनका मानना था कि व्यक्ति कर्म से बड़ा और छोटा होता है। वे ऐसे राजशासन के पक्षधर थे जो बिना दंड और शस्त्र के शासन करता हो। वे संपूर्ण भूमि राजा के अधीन देखना चाहते थे। उनका मानना था कि राजा केवल शांति-व्यवस्था के लिए ही उत्तरदायी नहीं है वरन् आर्थिक विकास भी उसका लक्ष्य होना चाहिए। किन्तु बौद्ध धर्म ने जाति व्यवस्था के विरुद्ध कोई कड़ा संघर्ष नहीं किया। बौद्ध धर्म ने चाण्डालों और निषादों को अस्पृश्य घोषित किया |
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