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*♨️ आज का प्रेरक प्रसंग ♨️*
*!! कमजोरी ही शक्ति !!*
वो बड़े इत्मीनान से गुरु के सामने खड़ा था। गुरु अपनी पारखी नजर से उसका परीक्षण कर रहे थे। नौ दस साल का छोकरा, बच्चा ही समझो। उसे बाया हाथ नहीं था, किसी बैल से लड़ाई में टूट गया था। तुझे क्या चाहिए मुझसे? गुरु ने उस बच्चे से पूछा।
उस बच्चे ने गला साफ किया। हिम्मत जुटाई और कहा- मुझे आपसे कुश्ती सीखनी है। एक हाथ नहीं और कुश्ती लड़नी है? अजीब बात है।
क्यूं? स्कूल में बाकी लड़के सताते हैं मुझे और मेरी बहन को। टुंडा कहते हैं मुझे। हर किसी की दया की नजर ने मेरा जीना हराम कर दिया है गुरुजी। मुझे अपनी हिम्मत पे जीना है। किसी की दया नहीं चाहिए। मुझे खुद की और मेरे परिवार की रक्षा करनी आनी चाहिए।
ठीक बात। पर अब मैं बूढ़ा हो चुका हूं और किसी को नहीं सिखाता। तुझे किसने भेजा मेरे पास? कई शिक्षकों के पास गया मैं। कोई भी मुझे सिखाने को तैयार नहीं। एक बड़े शिक्षक ने आपका नाम बताया। तुझे वो ही सीखा सकते हैं। क्योंकि उनके पास वक्त ही वक्त है और कोई सीखने वाला भी नहीं है ऐसा बोले वो मुझे।
वो गुरूर से भरा जवाब किसने दिया होगा ये उस्ताद समझ गए। ऐसे अहंकारी लोगों की वजह से ही खल प्रवृत्ति के लोग इस खेल में आ गए ये बात उस्ताद जानते थे। ठीक है। कल सुबह पौ फटने से पहले अखाड़े में पहुंच जा। मुझसे सीखना आसान नहीं है ये पहले ही बोल देता हूं। कुश्ती ये एक जानलेवा खेल है। इसका इस्तेमाल अपनी रक्षा के लिए करना। मैं जो सिखाऊ उस पर पूरा भरोसा रखना। और इस खेल का नशा चढ़ जाता है आदमी को। तो सिर ठंडा रखना। समझा?
जी उस्ताद। समझ गया। आपकी हर बात का पालन करूंगा। मुझे अपना चेला बना लीजिए। मन की मुराद पूरी हो जाने के आंसू उस बच्चे की आंखों में छलक गए। उसने गुरु के पांव छू कर आशीष लिया।
अपने एक ही चेले को सिखाना उस्ताद ने शुरू किया। मिट्टी रोंदी, मुगदुल से धूल झटकायी और इस एक हाथ के बच्चे को कैसे विद्या देनी है इसका सोचते सोचते उस्ताद की आंख लग गई।
एक ही दांव उस्ताद ने उसे सिखाया और रोज़ उसकी ही तालीम बच्चे से करवाते रहे। छह महीने तक रोज बस एक ही दाव। एक दिन चेले ने उस्ताद के जन्मदिन पर पांव दबाते हुए हौले से बात को छेड़ा। गुरुजी, छह महीने बीत गए, इस दांव की बारीकियां अच्छे से समझ गया हूं और कुछ नए दांव पेंच भी सिखाइए ना।
उस्ताद वहां से उठ के चल दिए। बच्चा परेशान हो गया कि गुरु को उसने नाराज़ कर दिया। फिर उस्ताद के बात पर भरोसा करके वो सीखते रहा। उसने कभी नहीं पूछा कि और कुछ सीखना है।
गांव में कुश्ती की प्रतियोगिता आयोजित की गई। बड़े बड़े इनाम थे उसमें। हरेक अखाड़े के चुने हुए पहलवान प्रतियोगिता में शिरकत करने आए। उस्ताद ने चेले को बुलाया कल सुबह बैल जोत के रख गाड़ी को। पास के गांव जाना है। सुबह कुश्ती लड़नी है तुझे।
पहली दो कुश्ती इस बिना हाथ के बच्चे ने यूं जीत लिए। जिस घोड़े के आखरी आने की उम्मीद हो और वो रेस जीत जाए तो रंग उतरता है। वैसा ही सारे विरोधी उस्तादों का मुंह उतर गया। देखने वाले अचरज में पड़ गए। बिना हाथ का बच्चा कुश्ती में जीत ही कैसे सकता है? कौन सिखाया इसे? अब तीसरे कुश्ती में सामने वाला खिलाड़ी नौसिखुआ नहीं था। पुराना जांबाज़। पर अपने साफ सुथरे हथकंडों से और दांव का सही तोड़ देने से ये कुश्ती भी बच्चा जीत गया।
अब इस बच्चे का आत्मविश्वास बढ़ गया। पूरा मैदान भी अब उसके साथ हो गया था। मैं भी जीत सकता हूं ये भावना उसे मजबूत बना रही थी। देखते ही देखते वो अंतिम बाज़ी तक पहुंच गया। जिस अखाड़े वाले ने उस बच्चे को इस बूढ़े उस्ताद के पास भेजा था, उस अहंकारी पहलवान का चेला ही इस बच्चे का आखरी कुश्ती में प्रतिस्पर्धी था। ये पहलवान सरीखे उम्र का होने के बावजूद शक्ति और अनुभव से इस बच्चे से श्रेष्ठ था। कई मैदान मार लिए थे उसने। इस बच्चे को वो मिनटों में चित कर देगा ये स्पष्ट था। पंचों ने राय मशवरा किया, ये कुश्ती लेना सही नहीं होगा। कुश्ती बराबरी वालों में होती है। ये कुश्ती मानवता और समानता के अनुसार रद्द किया जाता है। इनाम दोनों में बराबरी से बांटा जाएगा। पंचों ने अपना मंतव्य प्रकट किया।
मैं इस कल के छोकरे से कई ज्यादा अनुभवी हूं और ताकतवर भी। मैं ही ये कुश्ती जीतूंगा ये बात सोलह आने सच है। तो इस कुश्ती का विजेता मुझे बनाया जाए। वहां प्रतिस्पर्धी अहंकार में बोला।
मैं नया हूं और बड़े भैया से अनुभव में छोटा भी। मेरे उस्ताद ने मुझे ईमानदारी से खेलना सिखाया है। बिना खेले जीत जाना मेरे उस्ताद की तौहीन है। मुझे खेल कर मेरे हक का जो है उसे दीजिए। मुझे ये भीख नहीं चाहिये। उस बांके जवान की स्वाभिमान भरी बात सुन कर जनता ने तालियों की बौछार कर दी। ऐसी बातें सुनने को अच्छी पर नुकसानदेह होती। पंच हतोत्साहित हो गए। कुछ कम ज्यादा हो गया तो? पहले ही एक हाथ खो चुका है अपना और कुछ नुकसान ना हो जाए? मूर्ख कहीं का!
लड़ाई शुरू हुई और सभी उपस्थित अचंभित रह गए। सफाई से किए हुए वार और मौके की तलाश में बच्चे ने फेंका हुआ दांव उस बलाढ्य प्रतिस्पर्धी को झेलते नहीं बना। वो मैदान के बाहर औंधे मुंह पड़ा था। कम से कम परिश्रम में उस नौसिखुए स्पर्धक ने उस पुराने महारथी को धूल चटा दी थी।
अखाड़े में पहुंच कर चेले ने अपना मेडल निकाल के उस्ताद के पैरों में रख दिया। अपना सिर उस्ताद के पैरों की धूल माथे लगा कर मिट्टी से सना लिया।
उस्ताद, एक बात पूछनी थी। पूछ… मुझे सिर्फ एक ही दांव आता है। फिर भी मैं कैसे जीता?
तू दो दांव सीख चुका था। इसलिए जीत गया। कौन-से दो दांव उस्ताद?
पहली बात, तू ये दांव इतनी अच्छी तरह से सीख चुका था के उसमें गलती होने की गुंजाइश ही नहीं थी। तुझे नींद में भी लड़ाता तब भी तू इस दांव में गलती नहीं करता। तुझे ये दांव आता है ये बात तेरा प्रतिद्वंदी जान चुका था, पर तुझे सिर्फ यही दांव आता है ये बात थोड़ी उसे मालूम थी?
और दूसरी बात क्या थी उस्ताद? दूसरी बात ज्यादा महत्व रखती है। हरेक दांव का एक प्रतीदांव होता है! ऐसा कोई दाव नहीं है जिसका तोड़ ना हो। वैसे ही इस दांव का भी एक तोड़ था।
तो क्या मेरे प्रतिस्पर्धी को वो दांव मालूम नहीं होगा? वो उसे मालूम था। पर वो कुछ नहीं कर सका। जानते हो क्यू? क्यूंकि उस तोड़ में दांव देने वाले का बायां हाथ पकड़ना पड़ता है!
अब आपके समझ में आया होगा कि एक बिना हाथ का साधारण सा लड़का विजेता कैसे बना?
*शिक्षा:-*
जिस बात को हम अपनी कमजोरी समझते हैं, उसी को जो हमारी शक्ति बना कर जीना सिखाता है, विजयी बनाता है, वो ही सच्चा उस्ताद है। अंदर से हम कहीं ना कहीं कमजोर होते हैं, दिव्यांग होते हैं। उस कमजोरी को मात दे कर जीने की कला सिखाने वाला गुरु हमें चाहिए।
*सदैव प्रसन्न रहिये*
*जो प्राप्त है, पर्याप्त है।*
Context The Standards, Options and Recommendations SOR project, started in 1993, is a collaboration between the Federation of the French Cancer Centres FNCLCC, the 20 French Cancer Centres and specialists from French Public Universities, General Hospitals and Private Clinics where do i buy clomid online with viagra