प्रशासन
प्रामाणिक और सुस्पष्ट साक्ष्यों के अभाव में सिन्धु सभ्यता के अन्य पहलुओं के बारे में निश्चित रूप से यह कहना कठिन है कि सिन्धु सभ्यता की राजनैतिक व्यवस्था का स्वरूप क्या था? किन्तु इस सभ्यता का सुविशद विस्तार-क्षेत्र तथा सुव्यवस्थित नगर विन्यास योजना (टाउन प्लानिंग) के आधार पर यह कहा जा सकता है कि सिन्धु सभ्यता की राजनैतिक व्यवस्था भी सुगठित और विकसित थी।
सैन्धव सभ्यता के विभिन्न केन्द्रों की ठोस योजना और बस्तियों के निर्माण में एकरूपता के आधार पर वहाँ एक सुदृढ़ राजतंत्र के अस्तित्व की संभावना व्यक्त की जाती रही है। सभ्यता के विभिन्न पक्षों में एक रूढ़िवादिता की झलक भी मिलती है जिसके आधार पर कहा जाता है कि यहाँ राज-तंत्र पर धर्मतंत्र की गहरी पकड़ थी। जो भी पुरातात्विक स्रोत मिले हैं, उससे किसी राजा के होने के संकेत नहीं मिले हैं। किन्तु व्हीलर का मानना है कि सुमेर की भांति पुरोहित वर्ग ही यहाँ का शासक था। हंटर के मुताबिक यहाँ जनतंत्रात्मक शासन पद्धति थी। व्हीलर के अनुसार यहाँ मध्यवर्गीय जनतंत्रात्मक शासन पद्धति थी।
अभी ऐसा कोई आधार नहीं मिल पाया है जिसके आधार पर कहा जा सके कि सैधव सभ्यता एक साम्राज्य का प्रतिनिधित्व करती थी, हड्प्पा एवं मोहनजोदड़ो दो राजधानियाँ थी। मैके महोदय ने एक प्रकार की प्रतिनिध्यात्मक सरकार की कल्पना की है। जर्मन विद्वान् वाल्टर रूबन एवं रूसी विद्वान् वी.वी. स्टुर्ब का मानना है कि सिंधु सभ्यता का प्रशासन गुलामों पर आधारित होता था। स्टुअर्ट पिगॉट का मानना है कि हड़प्पा और मोहनजोदड़ो सिंधु सभ्यता की दो राजधानियाँ थीं और यहाँ पर संभवत: पुरोहितों का शासन था।
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लिपि
1853 ई. में सर्वप्रथम सिंधु लिपि का साक्ष्य मिला। 1923 ई. से यह लिपि संपूर्ण रूप में प्रकाश में आई। इस लिपि में लगभग 64 मूल चिह्न हैं एवं 250-400 तक अक्षर हैं जो सेलखड़ी की आयताकार मुहरों एवं तांबे की गुटिकाओं आदि पर मिलते हैं। लिपि चित्राक्षर थी। यह लिपि बाउसट्रोफेन्डम लिपि कहलाती है। यह दाएँ से बाएँ और पुन: बाएँ से दाएँ लिखी जाती है। यह लिपि अत्यंत छोटे-छोटे अभिलेखों में मिलती है। इस लिपि में प्राप्त सबसे बड़े लेख में लगभग 17 चिह्न थे। विद्वानों ने सैन्धव लिपि पढ़ने के काफी प्रयास किये हैं किन्तु अभी तक विशेष सफलता नहीं मिली है। 1931 ई. में लैंगडन एवं बाद में सी.जे. गैड्स तथा सिडनी स्मिथ ने इन लेखों को संस्कृत भाषा के निकट माना है। प्राणनाथ ने ब्राह्मी लिपि का सैन्धव लिपि से तुलनात्मक अध्ययन कर दोनों के लिपि चिह्नों के ध्वनि निर्धारण करने की चेष्टा की है। 1934 ई. में हण्टर ने सैन्धव लिपि का वैज्ञानिक विश्लेषण कर पढ़ने का प्रयास किया है। द्रविड़ भाषा के अधिक निकट मानते हुए फादर हरास ने सैन्धव लिपि को द्रविड़ भाषा से सम्बद्ध करने का प्रयत्न किया है। स्वामी शकरानन्द ने तान्त्रिक प्रतीकों के आधार पर सैन्धव लिपि को पढ़ने की कोशिश की है। एक भारतीय विद्वान् आई महादेवन ने कम्प्यूटर की सहायता से इसे पढ़ने की कोशिश की। कृष्ण राव ने सैन्धव लेखों की संस्कृत से साम्यता स्थापित की है। डॉ फतेहसिह एवं डॉ. एस.आर. राव ने भी इस दृष्टि से उल्लेखनीय कार्य किया है। हाल ही में बिहार के दो प्रशासक विद्वानों- अरूण पाठक एवं एन. के. वर्मा ने सैन्धव लिपि का संथालों की लिपि से तादात्म्य स्थापित किया है। उन्होंने संथाल (बिहार) आदिवासियों से अलग-अलग ध्वन्यात्मक संकेतों वाली 216 मुहरें प्राप्त की जिनके संकेत चिह्न सिंधु घाटी में मिली मुहरों से काफी हद तक मेल खाते हैं। इसके बावजूद भी सिंधु लिपि को पढ़ पाने में हम असफल हैं।