प्रवरसेन प्रथम- विंध्यशक्ति के पश्चात् उसका पुत्र प्रवीर (प्रवरसेन) शक्तिशाली शासक बना। वह अपने वंश का प्रतापी शासक था जिसने सम्राट् की उपाधि धारण की। इसने ही वाकाटकों के साम्राज्य को विस्तृत किया। पुराणों और अभिलेखों में उसके अश्वमेध यज्ञों के संपादन का उल्लेख है। प्राचीन भारत में राजा अपनी विजयों के उपलक्ष्य में यज्ञों का संपादन करता था। यह निश्चित नहीं है कि प्रवरसेन ने किन विजयों के उपलक्ष्य में इन यज्ञों का संपादन किया। प्रवरसेन ने अपना राज्य नर्मदा तक बढ़ा लिया और उसने चार अश्वमेध यज्ञ और सात (आप्तोर्यम, अग्निष्टोम, वाजपेय, ज्योतिष्टोम, बृहस्पतिसव, षोडशिन, अतिरात्र) वैदिक यज्ञ किये। चार अश्वमेध यज्ञों के सम्पादन से उसकी चार महान् विजयों की ओर संकेत मिलता है। प्रवरसेन का एक युद्ध पूर्व की तरफ हुआ होगा जिसके परिणामस्वरूप मध्यप्रदेश के जबलपुर और बालाघाट तक के जिले उसके अधीन हो गये। दूसरी लड़ाई दक्षिण की ओर रही होगी जिससे ऊपरी और पूर्वी महाराष्ट्र राज्य में सम्मिलित हुए होंगे। पश्चिमी मध्य प्रदेश में एक छोटे से राज्य के शासक की स्थिति से बढ़कर वह एक बड़े साम्राज्य का सम्राट् बन बैठा जिसमें उत्तरी महाराष्ट्र, विदर्भ, आन्ध्रप्रदेश और मैसूर का बहुत बड़ा भाग सम्मिलित था। ये सब प्रदेश सीधे सम्राट् के अलावा उसके पुत्रों के अधीन थे। उसके प्रभाव का क्षेत्र दक्षिण कोशल, मालवा, गुजरात और काठियावाड़ तक विस्तृत था। वास्तव में प्रवरसेन सम्राट् बनने का हकदार था।
रूद्रसेन प्रथम- प्रवरसेन के पश्चात् उसका पौत्र रूद्रसेन प्रथम शासक बना। वह भवनाग का दोहित्र था। इसका शासन काल लगभग 335-360 ई. माना गया है। वाकाटक वंशावलियों में उसके नाना का उल्लेख हुआ है जो पद्यावती में राज्य कर रहे थे। इनका वंश भारशिव था। भवनाग ने रूद्रसेन प्रथम को किन्हीं विषम परिस्थितियों में अवश्य ही बचाया होगा, तभी उल्लेख किया गया है। संभवत: रूद्रसेन का अपने चाचाओं से संघर्ष चल रहा होगा।
पृथ्वीसेन प्रथम- रूद्रसेन प्रथम के पश्चात् उसका पुत्र पृथ्वीसेन शासक बना। इसका शासनकाल 360-385 ई. के लगभग माना गया है। वाकाटक अभिलेखों में इसे धर्मविजयी कहा गया है और धर्मराज युधिष्ठिर के साथ इसकी तुलना की गयी है। बघेलखंड के नचने व मंजाम से प्राप्त अभिलेखों से विदित होता है कि व्याघ्रराज नाम के एक स्थानीय राजा को पृथ्वीसेन का आधिपत्य मान्य था। गुप्त नरेश चन्द्रगुप्त द्वितीय ने प्रभावती गुप्त का विवाह पृथ्वीसेन प्रथम के पुत्र रूद्रसेन के साथ किया। चन्द्रगुप्त द्वितीय को अपने विजय अभियानों में एक महत्त्वपूर्ण मित्र प्राप्त हुआ। यह विवाह पाटलिपुत्र में धूमधाम से सम्पन्न किया गया।
पृथ्वीसेन– इसने लगभग 460-480 ई. तक राज्य किया। यह मुख्य वाकाटक शाखा का अंतिम ज्ञात शासक था। बालाघाट लेख में पृथ्वीसेन को अपने वंश के खोये हुए भाग्य को बनाने वाला कहा गया है। पृथ्वीसेन द्वितीय को भी अपने शासन के प्रारंभिक काल में शत्रुओं का सामना करना पड़ा था। बालाघाट लेखों से ज्ञात होता है कि उसने दोबारा शत्रुओं से अपने वंश की कीर्ति की रक्षा की। शत्रुओं का मुकाबला किस प्रकार किया गया, इस पर अधिक प्रकाश नहीं पड़ता है। संभवत: ये शत्रु नल और त्रैवूटक वंश के थे। पृथ्वीसेन द्वितीय को नलवंशीय शासकों से युद्ध अपने पिता के शासन-काल में करना पड़ा था। त्रैकूटक वंश का शासक इस समय धारसेन था। पृथ्वीसेन के किसी पुत्र अधिकारी का उल्लेख नहीं मिलता है। इसके बाद वाकाटक वंश का नेतृत्व वासिम शाखा के हरिषेण के हाथ में आ जाता है। इसका उल्लेख अजन्ता के अभिलेख में हुआ।
बेसीम शाखा- बेसीम ताम्रपत्र के अनुसार प्रवरसेन प्रथम के पुत्र सर्वसेन ने अकोला जिले में अपना स्वतंत्र राज्य स्थापित किया था। वत्सगुल्म को उसने अपनी राजधानी बनाया। सर्वसेन का राज्यकाल संभवत: छोटा था और 360 ई. के लगभग समाप्त हुआ। सर्वसेन के शासन-काल की किसी विशेष घटना का ज्ञान नहीं होता।
सर्वसेन के पश्चात् उसका पुत्र विंध्यसेन विंध्यशक्ति द्वितीय के नाम से शासक बना। उसके राजकाल के 37वें वर्ष में बेसीम अनुदान पत्र लिखा गया। विंध्यशक्ति का शासन काल लगभग 50 वर्ष रहा। वह बहुत ही महत्त्वाकांक्षी शासक था। उसके साम्राज्य के अंतर्गत दक्षिणी बरार, उत्तरी हैदराबाद, नागपुर, नासिक, पूना, सतारा आदि जिले सम्मिलित थे।
प्रवरसेन विंध्यशक्ति द्वितीय का उत्तराधिकारी बना। उसने लगभग 400 ई. से 415 ई. तक शासन किया। इसके विषय में अधिक जानकारी नहीं मिलती है। विंध्यशक्ति द्वितीय के उत्तराधिकारी का नाम नहीं मिलता है। वह अल्पवयस्क था और संभवत: मुख्य शाखा का पृथ्वीसेन द्वितीय उसका संरक्षक था। इसके बाद देवसेन शासक बना जिसका शासन-काल 475 ई. तक चलता रहा। वह एक विलासप्रिय शासक था जिसने हस्तिभोज नामक एक सुयोग्य मंत्री के हाथों सारा राजकार्य सौंप रखा था
हरिषेण- देवसेन के बाद उसके पुत्र हरिषेण ने शासन संभाला। मुख्य शाखा के शासक पृथ्वीसेन का कोई पुत्र नहीं था। इसलिए हरिषेण मूल शाखा का शासक भी बन बैठा। वह एक वीर शासक था जिसने कोशल, कलिंग, अवति, त्रिकूट, लाट और आन्ध्र प्रदेश पर अपनी सत्ता स्थापित कर ली थी। संभवतः गुजरात के धारसेन के वंशज और मालवा के वर्मन वंश के शासक उसकी अधीनता स्वीकार कर चुके थे। आंध्र शासक विक्रमेन्द्र से हरिषेण के मैत्रीपूर्ण संबंध थे। इसने अपने पुत्र माघववर्मन का विवाह वाकाटक राजकुमारी से किया था। हरिषेण के काल में वाकाटक शक्ति उन्नति के चरम शिखर पर पहुँच गई थी। कोई भी समकालीन राज्य हरिषेण के साम्राज्य के समान विस्तृत व शक्तिशाली न था। हरिषेण का साम्राज्य उत्तर में मालवा से लेकर दक्षिण में कुन्तल तक, पूर्व में बंगाल की खाड़ी से पश्चिम में अरब सागर तक विस्तृत था। उसके योग्य मंत्री वराहदेव ने अजन्ता गुहा खुदवाई थी। कोई भी समकालीन राज्य इतना शक्तिशाली न था, हरिषेण को सुयोग्य व शक्तिशाली शासक के रूप में जाना जाता है।
वाकाटक साम्राज्य, जो अपनी शक्ति के उत्कर्ष पर था, अतिशीघ्र ही पतन की ओर उन्मुख हो गया। उसके साम्राज्य के अधिकतर भागों पर चालुक्यों ने अधिकार कर लिया। वाकाटक साम्राज्य इतनी शीघ्रता से क्यों नष्ट हो गया, यह इतिहासकारों के शोध का विषय है। वाकाटकों की देन-वाकाटकों की सांस्कृतिक देन उल्लेखनीय है। वाकाटक नरेश हिन्दू धर्म के अनुयायी थे। अधिकांश वाकाटक नरेश शैव थे। शिव की पूजा महेश्वर तथा महाभैरव के नाम से करते थे। उन्होंने बहुत से यज्ञों का सम्पादन किया। उनके द्वारा संपादित चार अश्वमेध यज्ञों का उल्लेख मिलता है। उन्होंने बहुत से शैव मन्दिरों का भी निर्माण करवाया।
वाकाटकों ने साहित्य को भी संरक्षण प्रदान किया। वाकाटक शासक स्वयं भी साहित्यिक अभिरुचि रखते थे। सर्वसेन ने हरिविजय नामक ग्रन्थ की रचना की। सर्वसेन के बारे में यह भी प्रचलित है कि इसने गाथा सप्तशती की बहुत सी गाथाओं की रचना की। प्रवरसेन द्वितीय ने ‘सेतुबंध’ नामक काव्य की रचना की। इस ग्रन्थ की उस काल में बहुत प्रशंसा की गयी है। इसमें बहुत सी कहावतें मिलती हैं। बाण तो यहाँ तक कहते हैं कि- इस सेतु के माध्यम से प्रवरसेन की ख्याति समुद्र को पार कर गयी थी। यह अनुमान किया जाता है कि कालिदास भी कुछ समय तक प्रवरसेन के दरबार में रहे थे।
कला के क्षेत्र में वाकाटकों ने अभूतपूर्व उन्नति की। तिगवा और नचना के मन्दिर इस काल की कलात्मक सजगता के प्रत्यक्ष उदाहरण हैं। नचना के मंदिर पृथ्वीसेन के मंत्री व्याघ्रदेव ने बनवाये थे। तिगवा के मन्दिर में गंगा यमुना की मूर्तियाँ हैं।
लगभग 390 ई. से 410 ई. तक प्रभावतीगुप्ता ने संरक्षिता बन कर शासन किया। इस कार्य में उसे अपने शक्तिशाली पिता चन्द्रगुप्त द्वितीय का सहयोग प्राप्त हुआ। विधवा प्रभावती ने शासन-कायों को सफलतापूर्वक सम्पन्न किया। चन्द्रगुप्त द्वितीय ने अपने दौहित्रों को शिक्षित करवाने में रुचि अवश्य ली होगी। वाकाटक राज्य में गुप्तों का प्रभाव भी बढ़ गया था। वाकाटकों के अभिलेखों में गुप्त वंशावलियाँ मिलती हैं। किवदन्तियों के अनुसार कालीदास ने प्रवरसेन द्वितीय (दामोदरसेन) के काव्यग्रन्थ सेतुबंध का संशोधन किया था। प्रभावती गुप्त को अभी एक दु:ख और सहना था। उसका ज्येष्ठ पुत्र तथा अवयस्क राजा की मृत्यु हो गयी। दामोदरसेन ने 410 ई. के लगभग प्रवरसेन का अभिषेक नाम धारण किया। तभी प्रभावती गुप्त को प्रशासनिक भार से मुक्ति मिली होगी। प्रभावती गुप्त के दान पात्रों से ज्ञात होता है कि प्रवरसेन के शासक बनने के बहुत वर्षों बाद तक वे जीवित रहीं।
प्रवरसेन द्वितीय- प्रवरसेन द्वितीय के बहुत से ताम्रपत्र प्राप्त हुए हैं। इनसे विदित होता है कि उसने अपने साम्राज्य का विस्तार तो नहीं किया, लेकिन पूर्व साम्राज्य को अक्षुण्ण रखा। प्रवरसेन ने अपनी राजधानी प्रवरपुर प्रतिष्ठापित की लेकिन इसकी समुचित पहचान अभी नहीं हो सकी है। प्रवरसेन को सेतुबंध नामक प्राकृत काव्य की रचना का श्रेय भी प्रदान किया जाता है। प्रवरसेन द्वितीय का शासनकाल लगभग 440 ई. तक रहा।
नरेन्द्रसेन- प्रवरसेन द्वितीय के बाद उसका पुत्र नरेन्द्रसेन शासक बना। इसका शासन-काल 440 ई. से 460 ई. के लगभग रहा। इतिहासकारों की यह धारणा है कि नरेन्द्रसेन को शासक बनते ही विकट परिस्थितियों का सामना करना पड़ा था। इसका आधार अजन्ता का 16वां गुहा लेख है। नरेन्द्रसेन को अपने प्रतिस्पद्धी भाई और उसके पुत्र से उत्तराधिकार के लिए युद्ध करना पड़ा। अब अधिकांश विद्वान् इस मत को नहीं मानते
अजन्ता की बहुत सी गुफायें वाकाटकों ने निर्मित करवाई। वराहदेव नामक मंत्री ने 16 गुफा बनवायीं। इनमें सुन्दर चित्रकारी की गयी है।