हालांकि, इस बात की आशंका जताई जा रही है कि दुनिया से उलट रुख रख भारत अलग-थलग हो जाएगा। लेकिन, जैसा दिखता है वैसा होता नहीं है। इतिहास में इसके कई सुबूत हैं। नेहरू के भारत के बहुत सारे दोस्त थे। यह और बात है कि जब 1962 में चीन ने हम पर हमला किया तो सबने आंखें मूंद लीं। कोई साथ नहीं खड़ा हुआ। रूस ने भी दो-टूक कहा था कि वह भाई और दोस्त के बीच पक्ष नहीं लेगा। भारत को चीन की आक्रामकता को अकेले झेलना पड़ा था। कुल मिलाकर आपकी लड़ाई दूसरा लड़ने नहीं आएगा। दुनिया तीसरा विश्वयुद्ध नहीं चाहती है। न ही यह होना चाहिए। इतिहास में ऐसे कई वाकये आए हैं जब अमेरिका और पश्चिमी देशों ने भारतीय हितों पर चुप्पी साध ली या फिर उसके मसलों को वैसी तवज्जो नहीं दी जैसी वह अपने हितों पर देता है।
‘न काहू से दोस्ती न काहू से बैर’ की पॉलिसी आज बहुत प्रासंगिक दिखती है। कोई कितना भी तरफदारी कराने के लिए चीखे-चिल्लाए, भारत के पास स्पष्ट तर्क है। न तो उसने किसी पर हमला किया है न ही वह आसपड़ोस के देशों पर ऐसा करने की नीयत रखता है। उसे दुनिया में अपना साम्राज्य भी नहीं फैलाना है। न उसे दुनिया का जज बनना है। मौका आने पर जब सबको किनारा ही कर जाना है तो वह क्यों पार्टी बनकर दुश्मनों की फेहरिस्त बढ़ाए।