गुप्तकाल Gupta period
मौर्यकाल के बाद की शताब्दियों में अनेक राज्यों के
उत्थान-पतन के बावजूद साम्राज्यवादी महत्त्वकांक्षा का अंत नहीं हुआ। कुषाण
साम्राज्य के पतन के उपरान्त भारतवर्ष में पुन: केन्द्रीय सत्ता का अभाव हो जाता
है। शक्तिशाली केन्द्रीय सत्ता के अभाव में भारत छोटे-बड़े अनेक राज्यों में
विभक्त हो जाता है। आन्तरिक अव्यवस्था और राजनैतिक विश्रृंखलन के इस परिदृश्य में
उत्तरी भारत के राजनैतिक क्षितिज पर एक नए राजवंश का उदय होता है। यह राजवंश
इतिहास में गुप्त राजवंश के नाम से प्रसिद्ध है।
गुप्तकाल के इतिहास को जानने के लिए कई
साक्ष्य मौजूद हैं। गुप्तकालीन अभिलेख, सिक्के व
साहित्य प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है। साहित्यिक स्रोतों में हरिषेण व वत्सभटिट्
के लेख, कालीदास की रचनाएँ (ऋतुसंहार, कुमारसम्भव, मेघदूत, रघुवंश, अभिज्ञानशाकुन्तलम्, मालविकाग्निमित्रम्, विक्रमोर्वशियम्)
पुराण, देवीचन्द्रगुप्तम्, मुद्राराक्षस, मृच्छकटिकम्, कामसूत्र, मंजूश्रीमूलकल्प तथा फाह्यान व ह्वेनसांग के विवरण
उल्लेखनीय हैं। इनसे गुप्तकाल के विभिन्न पक्षों पर प्रकाश पड़ता है। गुप्तकालीन
अभिलेखों से वंशावली, ऐतिहासिक घटनाओं एवं नरेशों की उपलब्धियों की
जानकारी मिलती है। अभिलेखों की भाषा संस्कृत है। इन्हें तीन भागों में विभाजित
किया जा सकता है- स्तम्भलेख, शिलाफलक लेख व्
ताम्रलेख। समुद्रगुप्त का प्रयाग स्तम्भ लेख अत्यंत महत्वपूर्ण है। इसमें उसके जीवन चरित एवं दिग्विजय का वर्णन है। चन्द्रगुप्त द्वितीय से
सम्बंधित जानकारी महरौली के स्तम्भ लेख व् उदयगिरी के शैव गुहालेख से मिलती है।
जूनागढ़ व मंदसौर अभिलेख भी महत्त्वपूर्ण हैं। गुप्तकालीन मुद्राएँ जो सोने, चाँदी व ताँबे की बनी हैं, गुप्तकाल की महत्त्वपूर्ण सूचनाएँ देती हैं।
गुप्तकालीन सिक्के काफी मात्रा में प्राप्त हुए हैं। समुद्रगुप्त की मुद्राओं से
उसके द्वारा अश्वमेध यज्ञ करने की जानकारी मिलती है। समुद्रगुप्त की एक मुद्रा के
ऊपर अश्वमेध के घोड़े का चित्र अंकित है। जो अश्वमेध यज्ञ का संकेत देता
है।
मौर्यकाल के बाद की अराजकता के बावजूद कोई भी
उस तरह के साम्राज्य के निर्माण में सफल नहीं हुआ। मौर्यों के समकक्ष पहुँचने के
अनेक प्रयत्न किये गये परन्तु किसी को उतनी सफलता नहीं मिली। मौयों के हास के साथ
देश अनेक राजतान्त्रिक एवं जनतान्त्रिक गण एवं नगर
राज्यों के रूप में विघटित हो गया। जैसा पूर्व में उल्लेख किया गया है कुछ काल के
लिए मध्य देश में शुंग, दक्षिण में सातवाहन, पंजाब
में विदेशी प्रजातियों यथा यवन, पह्लव, शक और उनके बाद कुषाणों ने साम्राज्य स्थापना में
सफलता प्राप्त की। किन्तु कुषाण साम्राज्य एक सदी से अधिक स्थायित्व नहीं रह पाया।
उत्तर भारत के एक बड़े भू-भाग में नागों का
राज्य फैला हुआ था। चौथी एवं पाँचवीं शताब्दी में नागवंश के एक शासक ने दस अश्वमेध
यज्ञ किए थे। उस शासक का नाम भारशिव था। इसी के नाम पर आगे बनारस में दशमेधाघाट
बना। कुषाण साम्राज्य के विघटन के बाद मध्य भारत में मुरूडों का शासन स्थापित हुआ।
तत्पश्चात् गुप्तों ने अपने शासन की स्थापना की। गुप्तों की उत्पति के विषय में
मतभेद हैं। के.पी. जायसवाल का मानना है कि गुप्त मुख्यत: जाट थे और पंजाब के
निवासी थे। दशरथ ओझा का मानना है कि गुप्त क्षत्रिय थे। ए.आर. चौधरी के अनुसार वे
ब्राह्मण थे। डॉ. काशी प्रसाद जायसवाल ने उन्हें शूद्रवंशीय कहा है। उनका कहना है
कि यदि गुप्त उच्च कुल के होते तो मौरवरी नरेशों के हरहा अभिलेख की भाँति वे भी
अपने अभिलेखों में उसी प्रकार से स्पष्ट उल्लेख करते। किन्तु गुप्त सम्राटों ने
किसी भी अभिलेख में अपने कुल का उल्लेख नहीं किया है। पूना ताम्रलेख और नेपाल का
इतिहास भी गुप्तों को निम्नवंशीय बताता है। किन्तु आधुनिक शोधों के आधार पर डॉ.
जायसवाल का मत असंगत ठहरता है। एल उल्तकेर एवं कृष्ण स्वामी आयंगर ने गुप्तों को
वैश्य बतलाया है। गौरीशंकर हीराचन्द ओझा, सुधाकर
चट्टोपाध्याय एवं डॉ. वासुदेव उपाध्याय ने गुप्त सम्राटों को क्षत्रिय बतलाया है।
डॉ. हेमचन्द्र राय चौधरी ने चंन्द्रगुप्त
द्वितीय का सम्बन्ध शुंगवंशीय नरेश अग्निमित्र की पत्नी धारिणी से बतलाकर उसे
ब्राहमणवंशीय कहा है। किन्तु डॉ. परमेश्वरी लाल गुप्त ने इसे असंगत बताया है। समुद्रगुप्त
की प्रयाग प्रशस्ति, कुमारगुप्त के विलसंड अभिलख, स्कदगुप्त के भीतरी अभिलेख से ज्ञात होता है कि
गुप्तों का प्रथम ऐतिहासिक पुरुष श्रीगुप्त था। उसका उत्तराधिकारी घटोत्कच गुप्त
हुआ। 319-20 ई. में चन्द्रगुप्त प्रथम शासक हुआ। इसी वर्ष से
गुप्त संवत की शुरूआत मानी जाती है। चन्द्रगुप्त प्रथम ने लिच्छवि राजकुमारी
कुमारदेवी से विवाह किया। इसने महाराजाधिराज की उपाधि ली और सोने के सिक्के चलाये।
अपने सिक्के पर उसने कुमारदेवी का नाम भी खुदवाया। लिच्छवि से गुप्तों के
सम्बन्धों को इतना महत्त्व दिया गया कि समुद्रगुप्त को लिच्छवि-दौहित्र कहा जाता
था। इस प्रकार गुप्त किस जाती के थे, इस सम्बन्ध में
अभी तक कोई सर्वमान्य विचार सामने नहीं आया है।
गुप्तों की जाति की भाँति उनके आदि स्थान के
विषय में भी अभी तक सर्वसम्मत विचार सामने नहीं आया है। डॉ. दिनेशचन्द्र गांगुली
ने गुप्तों का आदि स्थान पश्चिम बंगाल में आधुनिक मुर्शिदाबाद बताया है। उनका यह
निष्कर्ष चीनी इत्सिंग के यात्रा-विवरण पर आधारित है। सुधाकर चट्टोपाध्याय ने
गुप्तों का आदि स्थान आधुनिक मालदा जिला बताया है। समुद्र तट प्रो. जगन्नाथ का कथन
है कि गुप्तवंश का संस्थापक श्री गुप्त उत्तर प्रदेश में वाराणसी जिले में शासन
करता था। गुप्तों के अधिकांश अभिलेख उत्तर प्रदेश में मिले हैं। पुराणों में
गुप्तों का आदि स्थान साकेत, प्रयाग एवं मगध बताया
गया है। एलन, आयंगर, मुकर्जी आदि
विद्वानों ने मगध को गुप्तों का आदि स्थान स्वीकार किया है।
इस युग में भारशिव, वाकाटक और गुप्त तीनों ही देशों की उभरती हुई
शक्तियाँ थीं, किन्तु आश्चर्य की बात है कि उनमें परस्पर प्रभुत्व
की स्पर्धा के कोई चिह्न दिखाई नहीं देते। इस प्रकार आन्तरिक शान्तिमय वातावरण के
बीच गुप्तों ने अपने विशाल साम्राज्य की स्थापना की और दो शताब्दियों से अधिक काल
तक भारत पर अपना प्रभुत्व बनाए रखा।
गुप्त राजवंश का
उद्भव और उत्कर्ष The emergence and rise of the Gupta Dynasty
श्री गुप्त (240-280 ई.)- गुप्तों
के कुल और उद्भव भूमि के साथ ही यह प्रश्न भी विवादास्पद है कि गुप्त राजवंश का संस्थापक
कौन था। गुप्त अभिलेखों में जो वंश-वृहन दिए गए हैं, उनमें
सर्वप्रथम नाम श्री गुप्त का आता है। इससे यह प्रमाणित होता है कि गुप्तों के आदि
पुरुष का नाम श्री गुप्त था। विद्वानों में इस प्रश्न पर मतभेद है कि श्री
सम्मानार्थक प्रयुक्त किया गया है अथवा वह नाम के साथ जुड़ा है। एलन तथा जायसवाल
महोदय के अनुसार गुप्तों के आदि पुरुष का नाम केवल गुप्त था, श्री सम्मानार्थ जोड़ दिया गया है। इस प्रसंग में यदि प्रयाग प्रशस्ति का उल्लेख करें तो देखेंगे कि समुद्रगुप्त ने अपने
को महाराज श्री गुप्त का प्रपौत्र बतलाया है। सभी राजाओं के नाम के पूर्व श्री
जोड़ दिया गया है और जहाँ किसी का नाम वास्तव में श्री से प्रारम्भ होता है, वहाँ दो श्री का भी प्रयोग किया गया है। श्री गुप्त
का राज्य-क्षेत्र सीमित था। उसके बाद उसका उत्तराधिकारी घटोत्कच हुआ।
घटोत्कच- प्रभावती गुप्त के पूना एवं ऋद्धपुर ताम्रपत्र
अभिलेखों में घटोत्कच को प्रथम गुप्त नरेश कहा गया है। उसका शासन-काल 280-319 ई. माना जाता है। किन्तु एलन महोदय के अनुसार उसका
राज्य-काल 300 से 320 ई. था। कुछ अन्य
विद्वानों के अनुसार घटोत्कच ने 300-319 ई. तक शासन किया। रीवा
जिले में स्थित सुपिया से प्राप्त लेख (गुप्त संवत 151-471 ई.)
में गुप्त वंश को घटोत्कच-वंश कहा गया है। प्रिंसेस और टामस के अनुसार यह मुद्राएँ
घटोत्कच की हैं। किन्तु यह मत मान्य नहीं है क्योंकि इन मुद्राओं के पृष्ठ भाग पर
सम्राट की उपाधि सर्वराजोच्छेता (सम्पूर्ण नरेशों का उन्मूलनकर्ता) उत्कीर्ण है। यह अपने समय के सर्वशक्तिशाली सम्राट
की उपाधि रही होगी। घटोत्कच की महाराज उपाधि सूचित करती है कि वह एक साधारण शासक
था। वह स्वतंत्र शासक न रह कर किसी राजवंश का मांडलिक अथवा सामन्त रहा होगा।
चन्द्रगुप्त प्रथम (319-335 ई.)- चन्द्रगुप्त प्रथम
घटोत्कच का पुत्र और उत्तराधिकारी था। प्रयोग प्रशस्ति में गुप्तवंश के तृतीय शासक
चन्द्रगुप्त को महाराजाधिराज की पदवी प्राप्त है जबकि प्रथम दो शासकों को केवल
महाराजा का विरद प्राप्त है। इससे यह ज्ञात होता है कि प्रथम दो राजाओं गुप्त तथा
घटोत्कच और चन्द्रगुप्त के राजनैतिक अधिकारों में अन्तर था। परन्तु चन्द्रगुप्त
स्वतंत्र राजा रहा होगा तभी उसे महाराजा की पदवी प्राप्त थी जो उसके बाद के अन्य
गुप्त राजाओं को भी प्राप्त है। चन्द्रगुप्त प्रथम ने लिच्छवि राजकुमारी कुमार
देवी से विवाह किया। इस विवाह से उसकी शक्ति और प्रतिष्ठा में विशेष वृद्धि हुई।
डॉ. मजूमदार के अनुसार संभावत: गुप्त और लिच्छवि राज्य पड़ोसी थे। इस विवाह ने
उन्हें संयुक्त कर दिया जिससे नए राज्य की शक्ति और प्रतिष्ठा में वृद्धि हुई। डॉ.
फ्रीट के अनुसार चन्द्रगुप्त प्रथम ही 319-20 ई. में प्रारम्भ होने
वाले गुप्त संवत् का प्रवर्त्तक था। गुप्त अभिलेखों से इस संवत् की प्रारम्भिक
तिथि के निर्धारण में सहायता मिलती है। चन्द्रगुप्त प्रथम 319 ई. में सिंहासनासीन
हुआ और उसी वर्ष उसने एक नए संवत् का प्रवर्त्तन किया, इसकी पुष्टि अनेक
अभिलेखों से हो जाती है। इस प्रकार अधिकांश इतिहासकार दिसम्बर, 319 ई. को चन्द्रगुप्त
प्रथम द्वारा प्रवर्तित संवत् की तिथि मानते हैं। कुछ इतिहासकारों के अनुसार यह
तिथि 26 फरवरी, 320 ई. होती है।
चन्द्रगुप्त
प्रथम ने अपने साम्राज्य का विस्तार और उसका सुगठन किया। स्मिथ महोदय के अनुसार
उसके साम्राज्य के अन्तर्गत तिरहुत, दक्षिणी बिहार, अवध तथा इसके सभी
पर्वतीय प्रदेश थे। अधिकांश इतिहासकारों के अनुसार बिहार, बंगाल का कुछ भाग, कौशल, कोशाम्बी या इलाहाबाद
तक का क्षेत्र उसके साम्राज्य के अंतर्गत आता था। गुप्त साम्राज्य के विस्तार और
उसके संगठन के आधार पर उसने महाराजाधिराज की उपाधि धारण की।
गुप्त काल में
धर्म Religion
in the Gupta period
आधुनिक हिन्दू धर्म का जो स्वरूप है, वह बहुत कुछ गुप्तकालीन धर्म पर आधारित है।
गुप्तकालीन हिन्दू धर्म में लोक आस्थाओं का प्रवेश हो गया था। परम्परागत धर्म नवीन
तत्त्वों को भी समाहित करने लगा था। इसी दृष्टिकोण का प्रभाव पुराणों व स्मृतियों
पर पड़ा। इनमें धर्म के परम्परागत स्वरूप के साथ-साथ देश व काल के अनुरूप नवीनता
को स्वीकारा गया है।
भागवत धर्म- गुप्तकाल में ब्राह्मण धर्म का पुनरुत्थान हुआ।
मूर्ति उपासना का केन्द्र बन गई। यज्ञ का स्थान उपासना ने ले लिया। भागवत धर्म
ब्राह्मण धर्म से इस बात में भिन्न था कि उसने उपनिषद् द्वारा प्रतिपादित विश्व
ब्रह्म की जगह एक व्यक्तिगत ईश्वर को उपासना का केन्द्र बनाया। भागवत धर्म पाणिनी
के समय से ही प्रचलित था जबकि वैष्णव शब्द का प्रयोग 5वीं सदी से होने लगा। था। पाणिनी ने वसुदेव के
पुजारी वासुदेवका की चर्चा की है। मेगस्थनीज का भी कहना है कि सुरेसन (मथुरा) के
लोग वासुदेव की पूजा करते थे। ऐतरेय ब्राह्मण में विष्णु का उल्लेख सर्वोच्च देवता
के रूप में हुआ है। पतंजलि ने वासुदेव के पर्यायवाची नामों में कृष्ण और जनार्दन
का उल्लेख किया है। उसने केशव और राम के मन्दिरों में उत्सवों का भी जिक्र किया
है। वासुदेव कृष्ण वृष्णि अथवा सतवत् वंश के थे। यादव कुल के नायक जो धार्मिक
आंदोलन के नेता थे, कालांतर में देवता बन गए। आभीर जातियों ने ईसा की
प्रारंभिक शताब्दियों में वासुदेव की पूजा को लोकप्रिय बना दिया। छांदोग्य उपनिषद्
में वासुदेव कृष्ण की चर्चा है। उन्हें ऋषि घोरा का शिष्य और देवकी का पुत्र बताया
गया। ऋग्वेद काल में ही हमें विष्णु देवता मिलते हैं। ऋग्वेद में वे सूर्य संबंधित
हैं। उत्तर वैदिक काल में विष्णु की उपासना यज्ञ के द्वारा की जाती थी। भागवत गीता
के अनुसार भागवत धर्म का सिद्धांत सबसे पहले ब्रह्म ने सूर्य बताया, फिर सूर्य ने मनु को बताया और मनु ने इच्छवाकु को
सिखाया। सिद्धांत को सतवत् पद्धति का योग कहा जाता है। छांदोग्य उपनिषद् मानता कि
वासुदेव कृष्ण का उदय सातवीं एवं छठीं सदी ई.पू. हुआ था। इसकी पुष्टि जैन परंपरा
के अनुसार भी होती है क्योंकि यह वासुदेव कृष्ण को अरिष्टिनेमी (जैन तीर्थंकर) का
समकालीन मानता है। तैत्तरीय अरण्यक वासुदेव को नारायण और विष्णु से जोड़ता है।
बौधायन के धर्मसूत्र में भी वासुदेव और नारायण को जोड़ा गया है। नारायण की पूजा
पद्धति संभवत: सबसे पहले हिमालय क्षेत्र में प्रचलित हुई थी। नारायण के उपासक
मौलिक रूप से पांचरात्रिक के नाम से जाने जाते थे। बाद मेंवासुदेव से संयुक्त हो
गए। पांचरात्र शब्द
सबसे पहले शतपथ ब्राह्मण में उल्लिखित है। मान्यता यह है कि पुरुष नारायण ने
पांचरात्र सत्र किया जो पांच रातों तक चलता रहा। इससे सृष्टि का विकास हुआ। इसके
विकासक्रम में भगवान के 5
रूपों की ओर संकेत है। वैष्णवों ने इन 5 रूपों पर, व्यूह, विभव, अंतर्यामी और
अर्चा (मूर्ति) का नाम दिया है। अर्थात् वासुदेव जो है वे क्रमश: 5 रूपों में प्रकट होते हैं। पाँचरात्र मत के अनुसार
समस्त सृष्टि का बीज भगवान वासुदेव में सिमटा हुआ है। इससे छः गुण- ज्ञान, ऐश्वर्य, शक्ति, बल, वीर्य और तेज विकसित
हुए। इनमें ज्ञान और बल,
ऐश्वर्य और वीर्य, शक्ति और तेज के तीन जोड़े बनते हैं। इन जोडों को
व्यूह कहते हैं। ये तीन व्यूह संकर्षण (बलराम), प्रद्युम्न
(वासुदेव का पुत्र) और अनिरुद्ध (वासुदेव का पौत्र) हैं। इनके ऊपर वासुदेव कृष्ण
हैं। ये चार व्यूहों से 16
उपव्यूह फिर 4 विद्येश्वर
बनते हैं। ये सब मिलकर वासुदेव की 24 मूर्तियाँ होती
हैं। इसके बाद भगवान अपने आप को प्रकृति के विविध रूपों में प्रकट करते हैं। ये इनके विभव है। यही अवतार है। विभव अवतार भी कहे
जाते हैं। घोसुंडी (उदयपुर,
राजस्थान) से दूसरी ई.पू. का अभिलेख प्राप्त
हुआ। ज्ञात है नारायण की पूजा के लिए बने एक अहाते में सकर्षण और वासुदेव उपासना
के लिए भी अहाता बना हुआ है। इसका निर्माण पराशरी का पुत्र गजायान ने करवाया था।
एक पंचाल राजा विष्णुमित्र का एक सिक्का प्राप्त हुआ, जिस पर चार हाथों वाला ईश्वर का चित्र है जिनके
बाँये हाथ में एक चक्र है। उसी तरह कुषाण काल की एक मुहर प्राप्त होती है जिस पर
ऐसी तस्वीर मिली है, जिसके एक हाथ में शंख, दूसरे
हाथ में चक्र, तीसरे में गदा और चौथे हाथ में रिंग की तरह कोई चीज
है। कनिघम ने इस सिक्के को हुविष्क से संबंद्ध माना है। प्रथम शताब्दी के मथुरा के
मोरा नामक जगह से एक अभिलेख मिला है। इस अभिलेख में पाँच वृष्णि नायकों का वर्णन
है। वायु पुराण में कहा गया है कि वासुदेव (वासुदेव-देवकी का पुत्र)। संकर्षण
(रोहिणी से वसुदेव का पुत्र) प्रद्युम्न (रुक्मणी से वासुदेव का पुत्र) शम्ब
(जाम्बती से वासुदेव का पुत्र) थे। भागवत एवं पाँचरात्र संप्रदाय ने ही ब्राह्मण
धर्म में मूर्तिपूजा को प्रोत्साहित किया। उत्तर मध्य काल में राधा-कृष्ण के साथ
जुड़ गये। शतपथ ब्राह्मण में उल्लिखित मत्स्य कच्छप तथा वराह के स्वरूप को विष्णु
से संबंधित कर दिया गया। गुप्तयुग में अवतारवाद की अवधारणा प्रचलित हो गई। सबसे
पहले भागवत गीता में अवतारवाद के सिद्धांत का व्यापक निरूपण किया गया है।
अहीरबधन्य संहिता में 39
अवतारों की चर्चा है। इनमें शान्तोत्मा, बुद्ध का परिचायक है परन्तु आमतौर पर 10 अवतारों की चर्चा मिलती है- 1. मत्स्य, 2. क्रुर्म, 3. बराह, 4. नरसिंह, 5. वामन, 6. परशुराम, 7. राम, 8. कृष्ण, 9. बुद्ध, 10. कल्कि-
आने वाला अवतार (विष्णु के) हैं।
कश्मीरी लेखक
क्षेमेन्द्र की (1050 ई.) दशावतारचरित में बुद्ध को अवतार माना गया है।
जयदेव अपने गीत गोविन्द में लिखते हैं कि विष्णु पशुओं के प्रति करूणा का भाव रखने
के कारण बुद्ध के नजदीक आ गए। वैष्णववादी अवधारणा के विकास के दूसरे चरण में
विष्णु की पत्नी के रूप में भी श्री या लक्ष्मी की पहचान हुई। स्कंदगुप्त के समय
लक्ष्मी विष्णु से जुड़ गई। कुछ अभिलेखों में उसे वैष्णवी कहा गया है। वैष्णव धर्म
में ईश्वर को प्राप्त करने की तीन विधियां हैं- ज्ञान, कर्म और भक्ति। इनमें
सर्वाधिक महत्त्व भक्ति को दिया गया है। वैष्णव धर्म में तप और धार्मिक अनुष्ठान
के बदले ईश्वर की कृपा पर अधिक बल दिया गया है। भक्ति का अभिप्राय सभी इच्छाओं और
कमों को भगवान को अर्पित कर देना है। ज्ञान का संबंध भक्ति से जोड़ दिया गया।
दूसरी तरफ कर्म के महत्त्व पर भी बल दिया गया, ऐसा माना गया कि
निष्क्रियता नहीं, वरन् सच्चे कर्म से भगवान प्रसन्न होते हैं। दुर्गा, कार्तिकेय एवं गणेश
जैसे देवी-देवताओं के उदय के साथ संकर्षण ने अपना महत्त्व खो दिया। विष्णु
धर्मोत्तर पुराण में वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न और
अनिरुद्ध को विष्णु के 4 मुखों के रूप में प्रस्तुत किया गया है और उन्हें
क्रमश: विष्णु के बल, ज्ञान, ऐश्वर्य और शक्ति का
प्रतिनिधि माना गया है। भागवत एवं वैष्णव संप्रदाय में अहिंसा पर बल दिया गया है।
भागवत धर्म का महत्त्वपूर्ण स्रोत निम्न है- महाभारत, भागवद्गीता, भगवतपुराण, नारदसूत्र, शाण्डिल्यसूत्र। भागवत
अथवा वैष्णव धर्म का चरमोत्कर्ष गुप्त राजाओं के शासन-काल (319-550
ई.) में हुआ।
गुप्त नरेश, स्वत: वैष्णव, मतानुयायी थे। अधिकांश शासकों ने परम भागवत की उपाधि धारण कर रखी
थी। चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के सिक्के पर परमभागवत खुदा हुआ है। चन्द्रगुप्त और
समुद्रगुप्त के सिक्के पर विष्णु के वाहन गरूड़ की प्रतिमा बनी हुई है। स्कंदगुप्त
के भीतरी स्तंभलेख में वासुदेव कृष्ण की मूर्ति का उल्लेख है। स्कंदगुप्त के
जूनागढ़ तथा बुद्धगुप्त के एरण अभिलख विष्णु की स्तुति से प्रारंभ होते है। देशागढ़
का दशावतार मंदिर, गुप्तकाल में वैष्णव धर्म से सम्बंधित सबसे
महत्वपूर्ण मन्दिर है।
शैव धर्म- ऋग्वेद में शिव के लिए रूद्र नाम आया है। स्कंदगुप्त
के बैल के आकार का सिक्का प्राप्त हुआ है। कालिदास के रघुवंश में शिव की स्तुति
है। कालिदास की रचनाओं में काशी के विश्वनाथ और उज्जैन के महाकाल मंदिर की चर्चा
है। लिंग पूजा का प्रथम वर्णन मत्स्य पुराण में मिलता है। उत्तर में मांऊट कैलाश
और द. में चिदरम्बम् एवं तिल्लई शिव का स्थान माना गया है। कुमारगुप्त के समय शिव
के साथ पार्वती भी जुड़ गई। कुमारगुप्त प्रथम के सिक्के पर मयूर पर बैठे कार्तिकेय
की आकृति है। मानव आकार में शिव की मूर्ति कोसम से प्राप्त होती है। वामन पुराण के
अनुसार शैव धर्म से जुड़े हुए गुप्त काल में चार उपसंप्रदाय हुए- (1) शैव धर्म (2) पाशुपत धर्म (3) कापालिक धर्म (4) कालामुख धर्म।
पाशुपत धर्म सबसे प्राचीन था। इसके संस्थापक लकुलीश थे। पाशुपत धर्म के अनुयायी
पांचर्थिक कहलाते थे। कापालिक संप्रदाय के इष्टदेव भैरव थे। इन्हें शिव का अवतार
माना गया। इनके उपासक क्रोधी स्वभाव के थे। इनका प्रमुख केन्द्र श्रीशैल था। इसका
प्रमाण भवभूति के मालती माधव से
मिलता है। कापालिक संप्रदाय के लोग भी अतिवादी विचारधारा के थे। शिवपुराण में
इन्हें महाव्रतधर कहा गया है। इस संप्रदाय के लोग नर ककाल में भोजन करते थे और
चिता की भस्म शरीर पर मलते थे।
शिव के विभिन्न रूपों में दक्षिण की मूर्ति भी
प्रचलित थी। इसमें शिव को सार्वभौमिक शिक्षक के रूप में दिखाया गया है। दक्षिण में
शिव की पत्नी के रूप में मीनाक्षी को दिखाया गया है।
पूजा या सौर सम्प्रदाय- हिन्दू समाज में सूर्य पूजा की परम्परा अत्यन्त
प्राचीन है। ऋग्वेद में सूर्य के लिए सविता शब्द का प्रयेाग हुआ है। गुप्त काल में सूर्य पूजा
का प्रचलन था। इस तथ्य के अनेक साक्ष्य उपलब्ध है। महाकवि
कालिदास के ‘रघुवंश’ में सूर्य के सात हरे अश्वों का उल्लेख है। गुप्त
सम्राट् कुमारगुप्त के शासन-काल में रेशम बुनने वालों के एक संघ ने मंदसौर के निकट
दशपुर में एक सूर्यमन्दिर का निर्माण कराया था। उस युग की अनेक सूर्य-प्रतिभाएँ
मिली हैं। सूर्य पूजा की परम्परा परवर्ती युग में भी चलती रही और आज भी किसी न
किसी रूप में वह प्रचलित है।
मध्यभारत एवं कश्मीर में कुछ उदारवादी शैव
संप्रदाय भी विकसित हुए। कश्मीरी शैव सिद्धान्त को तीन शाखाएँ हैं- आगम शास्त्र, स्पन्दन शास्त्र और प्रत्यभिज्ञा शास्त्र
प्रत्यभिज्ञा उपसंप्रदाय के संस्थापक वसुगुप्त थे और स्पंदशास्त्र उपसंप्रदाय का
संस्थापक कलात् और सोमानंद थे। मध्य भारत और दक्कन में मत्तामयूर नामक
उपसंप्रदाय विकसित हुआ। कलचूरि, चेदी शासकों के समय यह
उत्थान पर था। आगे चलकर कई अन्य उपसंप्रदाय भी विकसित हुए। आगमन्त संप्रदाय के
संस्थापक- अघोर शिवाचार्य थे। शुद्ध शैव-सं. श्रीकांत शिवाचार्य ने इसका प्रतिपादन
किया। वीर शैव सम्प्रदाय का उद्भव दक्षिण भारत में हुआ। बसव पुराण के अनुसार इस
सम्प्रदाय का प्रवर्त्तन अल्लभ प्रभु और उनके शिष्य वसव (या वसवण्ण) थे। वसव एक
ब्राह्मण थे, वे कलचुरी शासक विजय के एक मंत्री थे। मत्स्येन्द्रनाथ (मछेन्द्रनाथ) ने नाथपंथ की स्थापना की। यह भी शैव धर्म का ही एक उपसंप्रदाय
था। शैव एवं वैष्णव मत दोनों ईश्वरवादी एवं एकेश्वरवादी थे। जहाँ वैष्णव मत
व्यक्ति के मानवीय एवं भावनात्मक पक्ष को छूता था वहीं शैव, दार्शनिक एवं वैज्ञानिक विचारधारा पर अत्यधिक बल
देता था।
दक्षिण में शासन करने वाले चालुक्य, राष्ट्रकूट, पल्लव, चोल आदि राजवंशों के समय में शैव धर्म की उन्नति हुई तथा
शिव के अनेक मन्दिर और मूर्तियाँ बनाई गई। पल्लव काल में शैव धर्म का
प्रचार-प्रसार नायनारों द्वारा किया गय। नायनार सन्तों की संख्या 63 बताई गई है। जिनमें अप्पार तिरुज्ञान सम्बन्दर, सुन्दरमूर्ति, मणिक्य वाचगर
आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। इनके भक्ति गीतों को देवारय में संकलित किया गया है।
शक्ति उपासना (शाक्त
धर्म)- गुप्त काल में शक्ति पूजा प्रचलित थी, कुमारगुप्त के गंगाधर अभिलेख में शक्ति पूजा का
उल्लेख है। मार्कण्डेय पुराण में देवी की स्तुति है। वृहत् संहिता में भी देवी पूजा का
उल्लेख है। गुर्जर प्रतिहार शासक देवी के उपासक थे और अपने को परमभगवति भक्त कहते
थे। आगे भक्ति आंदोलन के उदय के साथ देवी पूजा का महत्त्व घटता गया, फिर भी वह बंगाल और असम में लोकप्रिय रहा।
निम्नलिखित रूप में देवी की पूजा होती थी- (1) पार्वती (हिमालय
की पुत्री) (2) गौरी (3) अन्नपूर्णा (4) माता (तमिल में अम्मई) 5. दुर्गा (6) काली (7) चण्डी (8) कोराबाई। इन्द्र
की सवारी ऐरावत मानी
जाती थी। वे नीचे के स्वर्ग अमरावती में विद्यमान थे। वे पूर्वी भाग के स्वामी थे।
वे शक्र के नाम से भी जाने जाते थे।
वरुण- वे पश्चिमी भाग के स्वामी थे। बाद में तमिल क्षेत्र
में मछुवारे के देवता हो गए और उन्हें वरूण कहा जाने लगा। उनके प्रतीक के रूप में
शार्क मछली के सींग की पूजा की जाने लगी।
यम- ये दक्षिणी भाग के स्वामी थे। कुबेर वैश्रवण के नाम
से जाने जाते थे और वे उत्तरी भाग के स्वामी थे। ये चारों देवता मिलकर लोकपाल
कहलाये।
षड्दर्शन- (भौतिक
दर्शन)
न्याय- न्याय दर्शन तर्क और ज्ञान पर आधारित है। इसकी
उत्पत्ति अक्षपाद गौतम के सूत्रों से हुई।
वैशेषिक- यह न्याय दर्शन का पूरक है और संभवत: उससे पुराना भी
है। यह एक प्रकार का परमाणु दर्शन है, जो भौतिक
विज्ञान से संबद्ध है। इसका प्रवर्तक उलूक कणाद है। इसका व्याख्याता प्रशस्तपाद
है।
सांख्य- इसमें 25 मूल सिद्धान्तों
का प्रतिपादन किया गया है। इसमें प्रकृति एवं पुरुष के ध्रुवीकरण पर बल दिया गया
है। इसके प्रवर्तक कपिल हैं। कृष्ण द्वारा प्रतिपादित सांख्यकारिका इसका सबसे
प्राचीनतम ग्रन्थ है। इसमें प्रकृति की व्याख्या के क्रम में रजोगुण, तमोगुण और सतोगुण पर बल दिया गया है। इस पर जैन धर्म
का प्रभाव सबसे अधिक है।
योग- यह शरीर विज्ञान से संबंधित है। इसका आधार पतंजलि का
योगसूत्र है। बाद में व्यास द्वारा इसमें संशोधन और परिमार्जन किया गया।
पूर्व मीमांसा
(मीमांसा)- मीमांसा द्वारा वेदों को प्रतिष्ठित करने का कार्य
किया गया। इसमें अनुष्ठान कायों पर विशेष बल दिया गया। मंत्रों के महत्त्व को
स्पष्ट किया गया। छठी सदी ई.पू. का जैमिनी सूत्र इससे संबंधित प्राचीनतम ग्रन्थ
है। इससे संबंधित सबसे महत्त्वपूर्ण आचार्य शबरस्वामिन है।
उत्तर मीमांसा
(वेदांत)- ई. सन् के प्रारंभ में बादरायण ने इसका प्रतिपादन
किया। इसका मुख्य व्याख्याता गौड़पाद है। बाद में शंकराचार्य ने उपनिषद्, ब्रह्मसूत्र और भागवत्गीता पर टीकाएं लिखीं, जो शंकर के वेदांत के नाम से जानी जाती हैं।
बौद्ध धर्म- गुप्तकाल से पूर्व युग में बौद्ध धर्म व दर्शन का
प्रचार बड़े पैमाने पर हुआ था। गुप्त युग में बौद्ध धर्म वह स्थान प्राप्त न कर
सका जो कि अशोक व कनिष्क के समय प्राप्त था। गुप्त शासकों की धार्मिक सहिष्णुता की
नीति के कारण ब्राह्मण धर्म के साथ-साथ बौद्ध धर्म का भी विकास हुआ। बौद्ध धर्म के
दोनों सम्प्रदाय हीनयान व महायान गुप्तकाल में विकसित होते रहे। प्रारंभिक गुप्त
शासकों का झुकाव वैष्णव धर्म की ओर अधिक था लेकिन परवर्ती गुप्त शासकों का बौद्ध
धर्म की ओर।
इत्सिंग के विवरण से स्पष्ट होता है कि गुप्त
वंश के आदि पुरुष श्री गुप्त ने मृगशिखापत्तन (सारनाथ) में एक बौद्ध मंदिर बनवाया
था। चीनी यात्री ने यह भी लिखा है कि सिंह नरेश मेघवर्ण के अनुरोध पर समुद्रगुप्त
ने बोधगया में बौद्ध विहार बनाने की अनुमति प्रदान की थी। कुमारगुप्त व स्कंदगुप्त
ने भी बहुत से संघारामों का निर्माण करवाया। यह आश्चर्यजनक लगता है कि बौद्ध धर्म
को गुप्त काल में मौर्य काल की तुलना में राज्याश्रय प्राप्त नहीं हुआ। तब भी
बौद्ध धर्म और बौद्ध साहित्य स्वाभाविक रूप से संवर्धित होता रहा। पी.एल. गुप्त के
अनुसार बौद्ध धर्म को गुप्त सम्राटों को प्रत्यक्ष नहीं तो अप्रत्यक्ष संरक्षण
अवश्य प्राप्त था। चन्द्रगुप्त द्वितीय के समकालीन चीनी यात्री फाह्यान के विवरण
से भी स्पष्ट है कि उसके समय बौद्ध धर्म विकसित अवस्था में था। बुद्धगुप्त के काल
में तो बौद्ध धर्म का विकास राजधर्म के रूप में हुआ। ह्वेनसांग के विवरण से उसका बौद्ध
होना प्रमाणित होता है। इसका उत्तराधिकारी वैन्यगुप्त शिव का उपासक होते हुए भी
बौद्ध धर्म के प्रति सहानुभूति रखता था। उसने बौद्ध विहार के लिए गाँव दान में
दिया था।
तत्कालीन अभिलेखों, स्मारकों, मूर्तियों से भी
गुप्तकाल में बौद्ध धर्म के विकास के प्रमाण मिलते हैं। अभिलेखों में उन स्थानों
का उल्लेख है जो बौद्ध धर्म के विकास के प्रमाण मिलते हैं। अभिलेखों में उन
स्थानों का उल्लेख है जो बौद्ध धर्म के केंद्र थे। गुप्त युग में मथुरा, सांची, बोधगया, कुशीनगर आदि शहर बौद्ध गतिविधियों के केंद्र थे।
अभिलेखों में बहुत सारे बौद्ध विहारों के अस्तित्व की ओर भी संकेत मिलता है। बहुत
बड़ी संख्या में बुद्धमूर्तियों के प्राप्त होने से स्पष्ट है की बौद्ध धर्म को
प्रसिद्धि मिल चुकी थी। फाह्यान ने अपने यात्रा-विवरण में लिखा है मथुरा में तीन
सहस्र भिक्षु रहते थे। कन्नौज, वाराणसी आदि नगरों में
भी उसने बौद्ध भिक्षुओं को देखा था। फाह्यान यह भी लिखता है की इस काल में साकेत, श्रावस्ती, कोशल, कपिलवस्तु आदि का महत्त्व बौद्ध धर्म की दृष्टि से
घट गया था। कश्मीर, पंजाब और अफगान में बौद्ध धर्म का अधिक प्रचार था।
नालंदा बौद्ध विहार, बौद्ध धर्म और विद्या का केंद्र था। नालंदा
विश्वविद्यालय को गुप्त सम्राटों द्वारा अनुदान प्राप्त होता था। अजंता, एलोरा, भाजा, काले, कन्हेरी आदि
स्थानों में बौद्ध गुफाओं,
विहार व् चैत्यों आदि का निर्माण हुआ। ये
बौद्ध भिक्षुओं का निवास स्थल थे। इनमें बुद्ध व् बोधिसत्व की कथाओं का सुन्दर
चित्रण हुआ है।
गुप्त युग में हीनयान सम्प्रदाय की दो शाखायें
थीं- थेरवाद (स्थविरवाद) और वैभाषिक (सर्वास्तिवाद)। महायान सम्प्रदाय की भी दो
प्रमुख शाखायें थीं- माध्यमिक और योगाचारा गुप्तकाल में दोनों सम्प्रदायों के
विहार पृथक-पृथक थे। पाँचवीं शताब्दी में बुद्धघोष ने विसुद्धिमग की
रचना की। यह गया का निवासी था एवं वर्ण से ब्राह्मण था। विसुद्धिमग में
शील, समाधि और प्रज्ञा को निर्वाण प्राप्ति का साधन बताया
गया है। बुद्धघोष ने त्रिपिटक के बहुत से अंशों पर महत्त्वपूर्ण टीकायें लिखी हैं।
बौद्ध धर्म के प्रमुख दार्शनिक वसुबंधु और असंग इसी युग से सम्बद्ध थे। वसुबंधु के
प्रसिद्ध ग्रन्थ अभिधम्मकोष में
वैभाषिक शाखा के सिद्धान्तों की व्याख्या की गयी है। असंग की रचनाओं से विज्ञानवाद के
नये सिद्धान्तों की जानकारी मिलती है। दिङ्नाग ने प्रमाण
समुच्चय ग्रन्थ की रचना की।
गुप्तकाल में महायान धर्म का अधिक प्रचार रहा। इस काल में महायान दर्शन से संबंधित
ग्रन्थों की रचना नागार्जुन, आर्यदेव, असंग, वसुबंधु और
द्विङ्नाग ने की। यह दर्शन लोगों की अभिरूचि के अनुरूप था। इसमें ज्ञान के स्थान
पर भक्ति पर अधिक जोर दिया गया था। बुद्ध प्रतिमा व स्तूपों की पूजा को निर्वाण का
साधन माना गया था। महायान की उपशाखाओं के साहित्य की भी रचना हुई। चतुशतक, वज्रच्छेदिका
प्रज्ञानपारमिता,
प्रज्ञापारमिता
ह्रदयसूत्र, की रचना भी इसी युग में हुई। योगाचार शाखा से सम्बंधित भी कई ग्रंथों का प्रणयन
हुआ। इसके संस्थापक मैत्रस्यनाथ थे जिनका काल 200 ई. के लगभग माना
जा सकता है। असंग ने महायान सम्परिग्रह, योगाचार भूमिशास्त्र व महायान सूत्रालंकार नामक ग्रन्थों की रचना की। दक्षिण में भी बौद्ध धर्म
के बहुत से केन्द्र थे। नागार्जुनीकोंडा का प्रसिद्ध बौद्ध विहार दक्षिण में था।
काँची भी बौद्ध धर्म का प्रसिद्ध केन्द्र था। बौद्ध विहारों एवं चैत्यों पर हिन्दू
धर्म के भक्तिवाद का स्पष्ट प्रभाव दिखाई देता है। पौराणिक अवतारवाद की भाँति
अन्तर्गत भी अवतारवाद की धारणा का विकास हुआ। बुद्ध की निर्माण किया जाने लगा।
गुप्तकाल के अंतिम चरण में बौद्ध धर्म तंत्रवाद का विकास होने लगा था।
जैन धर्म- गुप्तकाल में ब्राह्मण व बौद्ध धर्म के साथ-साथ जैन
धर्म का भी विकास हुआ। गुप्तकालीन साहित्यिक व पुरातात्विक साक्ष्यों से भी जैन
धर्म के अस्तित्व का बोध होता है। यद्यपि तुलनात्मक दृष्टि से इसका विकास कम था।
जैन धर्म भारत के उत्तरी व पश्चिमी भाग में फैला था। दक्षिण भारत में भी इसके
अस्तित्व के परमन मिलते हैं। जैन धर्म के अनुयायियों की संख्या ब्राह्मण धर्म व
बौद्ध धर्म के अनुयायियों से कम थी। मथुरा, वल्लभी, विदिशा, पुंड्रवर्द्धन
आदि जैन धर्म के प्रमुख केन्द्र थे। वल्लभी में जैन धर्म की सभा का आयोजन किया गया
था। कुषाण और गुप्त काल के जैन तीर्थंकरों की कांस्य प्रतिमाएँ चौसा (बिहार) से
प्राप्त हुई हैं। बुद्धगुप्त का एक ताम्रलेख पहाड़पुर (पूर्वी बंगाल) से प्राप्त
हुआ है जिसमें एक जैन विहार के निर्माण का उल्लेख है। विहार में अतिथि शाला के
निर्माण के लिए एक ब्राह्मण द्वारा दान दिये जाने का भी उल्लेख है। कहांव के
अभिलेख में उल्लेख आया है कि स्कदगुप्त के काल में मद्र नामक व्यक्ति ने जैन
तीर्थंकरों की मूर्तियों की स्थापना करवाई। इन जैन तीर्थकरों के नाम थे- आदिनाथ, शांतिनाथ, नेमिनाथ, पाश्र्वनाथ और महावीर। मथुरा के एक अभिलेख में
हरिस्वामिनी नामक एक जैन महिला द्वारा किसी जैन मंदिर को दान देने का उल्लेख है।
चन्द्रगुप्त द्वितीय के समकालीन चीनी यात्री फाह्यान के यात्रा विवरण सेभी जन
मंदिरों के अस्तित्व का बोध होता है।
313 ई. में मथुरा में द्वितीय संगति हुई और 453 ई. में वल्लभी में तृतीय संगति संपन्न हुई। वल्लभी
संगति की अध्यक्षता देवार्धिक्षमाश्रमण ने की। मुनि सर्वनन्दी ने लोक विभग नामक
ग्रंथ की रचना की। आचार्य सिद्धसेन ने न्यायावतार की रचना की। कुमारगुप्त के उदयगिरी
अभिलेख से ज्ञात होता है कि शांकर नामक एक व्यक्ति ने पार्श्वनाथ की मूर्ति
स्थापित की थी।
गुप्त काल में
विज्ञान Science
in the Gupta period
गुप्त काल में विज्ञान के विकास का पता चलता
है। गुप्तकालीन विज्ञान के अंतर्गत मुख्यत: गणित, ज्योतिष
और आयुर्वेद का विकास हुआ। आर्यभट्ट, वराहमिहिर और ब्रह्मगुप्त गुप्तकालीन वैज्ञानिक हैं जिन्होंने अपने ग्रन्थों
में विज्ञान की विवेचना की। आर्यभट्ट का प्रसिद्ध ग्रन्थ आर्यभट्टीयम् है।
उसने गणित को अन्य विषयों से मुक्त कर स्वतंत्र रूप दिया। उसके अन्य ग्रन्थ दशगीतिक सूत्र और आर्याष्टशतक हैं।
आर्यभट्ट ने पृथ्वी को गोल बताया और उसकी परिधि का अनुमान किया। इस प्रकार आर्यभट्ट विश्व के पहले
व्यक्ति थे जिन्होंने यह स्थापित किया कि पृथ्वी गोल है। आर्यभट्ट ने ग्रहण का
राहु-ग्रास वाला जन विश्वास गलत सिद्ध कर दिया। उसके अनुसार चन्द्र ग्रहण चन्द्रमा
और सूर्य के मध्य पृथ्वी के जाने और उसकी चन्द्रमा पर छाया पड़ने के कारण लगता है।
उसकी इन धारणाओं का वराहमिहिर और ब्रह्मगुप्त ने खंडन किया। आर्यभट्ट ने दशमलव प्रणाली की
भी विवेचना की। आर्यभट्ट का शून्य, तथा दशमलव
सिद्धान्त सर्वथा नयी देन थी। संसार के गणित इतिहास में आर्यभट्ट का महत्त्वपूर्ण
स्थान है। उसने वर्षमान निकाला जो कि टालेमी द्वारा निकाले हुए काल से अधिक
वैज्ञानिक है।
आर्यभट्ट के बाद दूसरा प्रसिद्ध गुप्तकालीन
गणितज्ञ एवं ज्योतिषी वराहमिहिर है। उसने यूनानी और भारतीय ज्योतिष का समन्वय करके रोमक तथा पोलिश के
नाम से नये सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया जिससे भारतीय ज्योतिष का महत्त्व बढ़ा।
उसके छ: ग्रन्थ उल्लेखनीय हैं- पंथ सिद्धान्तिका, विवाहपटल, योगमाया, बृहत्संहिता, वृहज्जातक और लघुजातक। पंचसिद्धांतिका में पाँच
प्राचीन सिद्धान्तों (पैताभट्ट सिद्धान्त, वशिष्ट
सिद्धान्त, सूर्य सिद्धान्त, पौलिश सिद्धान्त
तथा रोमक सिद्धान्त) को बताया गया है। वराहमिहिर ने ज्योतिष शास्त्र को तीन शाखाओं
में विभाजित किया- तंत्र (गणित और ज्योतिष), होरा (जन्मपत्र)
और संहिता (फलित ज्योतिष)। वराहमिहिर के बृहज्जातक को विज्ञान और कला का विश्वकोश
माना गया है। वराहमिहिर के पुत्र पृथुयश ने भी फलित ज्योतिष पर षट्पञ्चशिका ग्रन्थ
की रचना की। इस पर भट्टोत्पल ने टीका लिखी। आचार्य कल्याण वर्मा भी प्रमुख
ज्योतिषाचार्य थे जिनका काल 600 ई. के लगभग माना गया
है। इन्होंने यवन-होराशास्त्र के संकलन के रूप में सारावली नामक ग्रन्थ की रचना की।
ब्रह्मगुप्त भी गुप्तकालीन गणितज्ञ थे जिन्हें
गुरुत्वाकर्षण सिद्धान्त का जनक माना गया है। इनका समय 598 ई. था। इन्होंने ब्रह्मस्फुटसिद्धांत नामक ग्रन्थ की रचना की। ब्रह्मगुप्त ने बाद में खंडखाद्य और ध्यानग्रह की
रचना की। उन्होंने न्यूटन से बहुत सी शताब्दियों पहले यह घोषित कर दिया था कि
प्रकृति के नियमानुसार सारी वस्तुएँ पृथ्वी पर गिरती हैं क्योंकि पृथ्वी का स्वभाव
सभी को अपनी ओर आकृष्ट करना है। कुडरंग, नि:शंकु और
लाटदेव अन्य गुप्त-कालीन ज्योतिषी हैं। लाटदेव ने रोमक सिद्धान्त की व्याख्या की थी।
आयुर्वेद यद्यपि बहुत पुराना है तथापि इस पर गुप्त काल में
ग्रन्थ लिखे गये। आयुर्वेद से संबंधित कई महत्त्वपूर्ण रचनाओं का प्रणयन हुआ।
नालंदा विश्वविद्यालय में ज्योतिष और आयुर्वेद का अध्ययन होता था। चीनी यात्री
इत्सिंग ने तत्कालीन भारत में प्रचलित आयुर्वेद की आठ शाखाओं का उल्लेख किया है। नवनीतकम् नामक
ग्रन्थ भी है। इसमें प्राचीन आयुर्वेदिक ग्रन्थों का सार है। इसमें रसों, चूर्णो, तेलों आदि का
वर्णन है। इसके अलावा बालकों के रोग और निदान भी इसमें मिलते हैं।
इसी दौरान पशु चिकित्सा से संबंधित कई
ग्रन्थों की रचना हुई जो घोड़ों व हाथियों से संबधित थे। भारतीय चिकित्सा ज्ञान का
प्रसार पश्चिम की ओर हुआ तथा पश्चिमी एशिया के चिकित्सकों ने इसमें रुचि ली।
गुप्तकाल का प्रसिद्ध रसायनशास्त्री एवं धातु विज्ञान वेत्ता नागार्जुन था। यह
बौद्ध आचार्य था, जिसके प्रमुख ग्रन्थ हैं- लोहशास्त्र, रसरत्नाकर, कक्षपुट, आरोग्यमजरी, योगसार, रसंन्द्रमगल, रतिशास्त्र, रसकच्छा पुट और सिद्धनागार्जुन। अब तक जो चिकित्सा प्रणाली थी उसका आधार काष्ठ था।
नागार्जुन ने रस चिकित्सा का
आविष्कार किया। उसने यह अवधारणा प्रदान की कि सोना, चाँदी, तांबा, लौह आदि खनिज
धातुओं में भी रोग प्रतिरोधक क्षमता होती है। पारद (पारे) की खोज उसका सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण आविष्कार
था जो रसायन और आयुर्वेद के इतिहास की एक युगान्तकारी घटना थी। वाग्भट्ट ने भी
आयुर्वेद के ऊपर प्रसिद्ध ग्रंथ अष्टांग-हृदय की रचना की। धन्वंतरि भी आयुर्वेद का प्रसिद्ध विद्वान् था। इसे
चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य की राजसभा का सदस्य माना गया। यह बहुमुखी व्यक्तित्व व
असाधारण प्रतिभा का धनी था। धन्वंतरि को कई नामों से संबोधित किया गया है जैसे आदि
देव, अमरवर, अमृतयोनि, अब्ज आदि। धन्वन्तरि को देवताओं का वैद्य कहा गया
है। कहा जाता है कि धन्वंतरि समुद्र मंथन के फलस्वरूप अमृत हाथ में लिये हुए
समुद्र से निकले थे। कुछ विद्वान् यह मानते हैं कि सुश्रुत
संहिता के उत्तरवर्ती भाग की रचना किसी और लेखक ने की थी।
नागार्जुन को भी इसका श्रेय दिया जा सकता है।
प्राचीन भारतीय वैज्ञानिकों ने अश्व, गज, गौ, मृग, शेर, भालू, गरुड़, हंस, बाज आदि से
संबंधित विस्तृत अध्ययन किया। विभिन्न ग्रन्थों में इनका विवरण उपलब्ध है।
पालकाप्य कृत गजचिकित्सा, बृहस्पति कृत गजलक्षण आदि
ग्रन्थ पशु-चिकित्सा पर हैं। वाग्भट्ट भी गुप्तकालीन रसायन-शास्त्री था जिसका ग्रन्थ रसरत्न समुच्चय भी उल्लेखनीय है।
गुप्त काल में
साहित्य Literature
In The Gupta Period
गुप्तकाल में ही अधिकांश पुराणों का
संकलन हुआ। प्रारम्भ में पुराण रचना से चारण लोग जुड़े हुए थे। उन चारणों में
लोमहर्ष और उसके पुत्र उग्रसर्व प्रमुख हैं। अधिकांश पुराणों से वे जुड़े हुए थे, किन्तु आगे चलकर पुराण रचना का कार्य ब्राह्मणों के
हाथों में चला गया।
गुप्त काल में संस्कृत भाषा और साहित्य का
अप्रतिम विकास हुआ। संस्कृत का प्रयोग शिलालेख, स्तम्भलेख, दान-पत्र लेख आदि में हुआ। इसी भाषा में इस युग के
महान् कवियों और साहित्यकारों ने अपनी अनेक कालजयी रचनाओं का प्रणयन किया।
इस काल में एक ओर प्रतिभाशाली सम्राट् हुए, तो दूसरी ओर कवि, गद्यकार, वैज्ञानिक एवं नाट्य ग्रन्थों के प्रणेता भी
आविर्भूत हुए। गुप्तकालीन साहित्य को निम्नांकित कोटियों में विभाजित किया जा सकता
है प्रशस्तियाँ, काव्यग्रन्थ, नाटक, नीतिग्रन्थ, स्मृतिग्रन्थ, कोश, व्याकरण, दर्शनग्रन्थ और विज्ञान।
प्रशस्तियाँ- गुप्त सम्राटों की उपलब्धियाँ शिलाओं, स्तम्भों तथा सिक्कों से विदित होती हैं। हरिषेण ने
प्रयाग प्रशस्ति की रचना की। इसमें समुद्रगुप्त की उपलब्धियों का वर्णन है। हरिषेण
की शैली आलंकारिक थी। उसने गद्य-पद्य दोनों को अपनाया है। इस अभिलेख की कई
पंक्तियाँ खंडित हो चुकी हैं। चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य का परराष्ट्र मंत्री
वीरसेन भी कवि था। इसने उदयगिरी के शैवलेख की रचना की थी। गिरनार पर्वत और भीतरी
स्तंभ पर स्कंदगुप्त की विजय और उपलब्धियाँ अंकित हैं। मंदसौर का सूर्य मंदिर
अभिलेख कुमारगुप्त द्वितीय के शासनकाल का है। इसकी रचना वत्सभट्टि ने की थीं।
वेदभी रीति में निबद्ध यह शैली कहीं-कहीं कालिदास की शैली का स्मरण कराती है।
अभिलेख के प्रारंभिक भाग में लाट प्रदेश (दक्षिणी गुजरात) की प्राकृतिक छटा का
निरूपण है। इसमें मालवा के दशपुर नगर का भी सजीव चित्रण मिलता है। वत्सभट्टि
द्वारा इस नगर में निवास करने वाली पट्टवाय श्रेणी (बुनकर समिति) के आदेश के कारण
इस प्रशस्ति का निर्माण किया गया। वासुल ने मंदसौर नरेश यशोवर्मन की उपलब्धियों का
वर्णन मन्दसौर के स्तम्भ लेख में किया है। इस प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि
यशोवर्मन जो प्रारम्भ में गुप्तों का सामन्त था, ने
अपनी शक्ति में अभिवृद्धि कर ली थी और स्वतंत्र शासक बन गया था। काव्यमय शैली
सिर्फ अभिलेखों में ही दिखाई नहीं देती वरन् सिक्कों पर भी देखी जाती है।
काव्यग्रन्थ और नाटक- संस्कृत साहित्य में ही नहीं, अपितु समस्त भारतीय साहित्य में कालिदास का सर्वाधिक
महत्त्व है। कालिदास के स्थान, काल एवं वंश की जानकारी
नहीं मिलती लेकिन उसकी रचनाओं को विद्वानों ने भास के बाद की रचना माना है। उसने
सम्भवत: अपनी कृतियों का सृजन चन्द्रगुप्त द्वितीय (विक्रमादित्य) की राजधानी
(उज्जैन) में किया होगा। कालिदास का उज्जैन के प्रति लगाव यह सूचित करता है कि
चन्द्रगुप्त के संरक्षण में उन्होंने अपना काफी समय व्यतीत किया था। कालिदास एक कवि
और नाटककार दोनों दृष्टियों से सफल और बेजोड़ हैं। कालिदास के चार काव्य (ऋतुसंहार, मेघदूत, कुमारसंभव एवं
रघुवंश) तथा तीन नाटक (मालविकाग्निमित्रम्, विक्रमोर्वशीय, अभिज्ञानशकुन्तलम्) अब तक प्राप्त हुए हैं। ऋतुसंहार
उनकी प्रथम रचना लगती है जिसे उन्होंने यौवनावस्था में लिखा होगा। कुछ विद्वान्
ऋतुसंहार को अत्यन्त सामान्य और नैतिक गुणों से रहित रचना मानते हैं। इस सम्बन्ध
में कहा गया है कि युवावस्था एवं प्रौढ़ावस्था की रचनाओं में अन्तर होना स्वाभाविक
था। पाश्चात्य साहित्यकार जैसे वर्जिल, गेटे, टेनिसन की रचनाओं में यह बात देखी जाती है। इससे छ:
ऋतुओं का वर्णन मिलता है और कवि ने इसके द्वारा प्रकृति का श्रृंगारिक, सहज एवं स्वाभाविक वर्णन किया है। सम्पूर्ण काल में
युवक-युवतियों के प्रेम के साथ, ऋतुओं के परिवर्तन के
सम्बन्धों को दर्शाया गया है।
मेघदूत- एक गीतिकाव्य है, जो अपनी कोटि की
सर्वोत्तम रचना मानी जाती है। यह कालिदास की काव्य कला का सुन्दर उदाहरण है, जिसमें प्रकृति के सौंदर्य का भी चित्रण किया गया
है। हिमालय की सुन्दर छटा व बसन्त ऋतु का वर्णन मिलता है। ऋतुसंहार की
तुलना में मेघदूत निसन्देह प्रौढ़कालीन रचना है। कर्त्तव्य से च्युत होने पर
स्वामी (शिव) द्वारा एक वर्ष के लिए निर्वासित यक्ष को वर्षा काल में अपनी पत्नी
का स्मरण आता है और वह जाते हुए मेघ से अपनी भार्या के पास समाचार ले जाने का
अनुरोध करता है। कुमारसंभव के
बारे में इतिहासकार अनुमान लगाते हैं कि इसका प्रणयन संभवत: कुमारगुप्त के जन्म के
अवसर पर हुआ था। कुमारसंभव में 17 सर्ग हैं जिनमें
शिवपार्वती के विवाह, कार्तिकेय के जन्म तथा उसके द्वारा तारकासुर के वध
की कथा का वर्णन है।
रघुवंश- कालिदास का सर्वोत्तम महाकाव्य है जिसमें
इक्ष्वाकुवंशीय राजाओं का वर्णन है। इसमें 19 सर्ग हैं-राजा
दिलीप, रघु, अज, दशरथ, राम के वंशजों
के चरित्र का वर्णन किया गया है। रघुवंश में सभी प्रधान रसों (शांत, वीर, श्रृंगार आदि)
का समावेश है। मालविकाग्निमित्रम् को ऐतिहासिक नाटक कहा जा सकता है। इसमें शुंगवंशीय
राजा अग्निमित्र तथा मालविका की
प्रेम कथा का वर्णन है। प्रसंगवंश पुष्यमित्र शुंग के यवन युद्ध एवं उर्वशी की
प्रणय कथा का वर्णन मिलता है। अभिज्ञानशाकुन्तलम् समस्त संस्कृत साहित्य का सर्वोत्कृष्ट नाटक है।
समस्त संस्कृत साहित्य ही नहीं, यदि इसे विश्व की
सर्वश्रेष्ठ रचना कहा जाय तो असंगत न होगा। इस प्रसंग में एक विद्वान् के यह विचार
उल्लेखनीय हैं कि काव्य में नाटक मनोरम होते हैं और नाटकों में सर्वाधिक मनोरम
अभिज्ञानशकुन्तलम् है। इसमें सात अंक हैं जिनमें दुष्यंत व शकुन्तला की प्रणय कथा
का चित्रण है। इसमें प्रेम,
करुणा, सहिष्णुता जैसे
मानवीय गुणों पर अधिक जोर दिया गया है। कुछ इतिहासकार यह मानते हैं कि कालिदास ने कुन्तलेश्वर दौत्य नामक ग्रन्थ की भी रचना की। परन्तु दुर्भाग्यवश इसकी
कोई भी कृति अभी प्राप्त नहीं हुई है। यह भी कहा गया है कि चन्द्रगुप्त
विक्रमादित्य ने कालिदास को अपने नाती प्रवरसेन द्वितीय का शिक्षक नियुक्त किया
था। इसी वाकाटक नरेश ने सेतुबंध की
रचना की। भास संस्कृत नाट्य परम्परा के प्रथम नाटककार हैं। भास के रचना-काल के
विषय में मत-भेद है किन्तु अधिकांश विद्वान् उन्हें इसी युग से सम्बन्धित मानते
हैं। स्वप्नवासवदत्ता भास
की अनुपम रचना है। इसके अतिरिक्त प्रतिभा नाटक, पञ्चरात्र, प्रतिज्ञा सौगंधरायण उसकी अन्य प्रसिद्ध रचनाएँ हैं।
महा महोपाध्याय गणपति शास्त्री ने 1912 में
भास के 12 नाटकों का प्रकाशन किया था। शूद्रक का मृच्छकटिकम्
भी गुप्त युग का प्रमुख नाटक है। इसका नायक चारूदत्त एक युवा ब्राह्मण है जो
सार्थवाह है और उज्जैयनी की वेश्या बसन्तसेना पर आसक्त है। इस नाटक में समकालीन
समाज एवं संस्कृति का यथार्थ चित्रण मिलता है। इस ग्रन्थ में तत्कालीन न्यायिक
प्रक्रिया का भी चित्रण हुआ है। शूद्रक की लेखनी यथार्थवादी व चित्रात्मक है। उसने
राज, किया है। मुद्राराक्षस व देवीचन्द्रगुप्तम् का लेखक
विशाखदत्त भी गुप्तकाल से सम्बद्ध है। इसे चन्द्रगुप्त द्वितीय का समकालीन माना
गया है। देवीचन्द्रगुप्तम की मूल पांडुलिपि उपलब्ध नहीं हुई है। इसके कुछ अंश नाट्य दर्पण में
व श्रृंगारप्रकाश में मिलते हैं। इसमें रामगुप्त नामक गुप्त नरेश का
शक शासक द्वारा पराजित होना, अपनी पत्नी
ध्रुवस्वामिनी को समर्पित करने के लिए बाध्य होना, चन्द्रगुप्त
द्वितीय द्वारा शकराज की हत्या करना, रामगुप्त का वध
कर ध्रुवदेवी के साथ विवाह आदि घटनाओं का वर्णन मिलता है। इस प्रकार
देवीचन्द्रगुप्त एक ऐतिहासिक नाटक है। मुद्राराक्षस भी ऐतिहासिक नाटक है।
इसमें चाणक्य का कूटनीतिक कौशल दिखाई देता है।
स्मृति ग्रन्थ- गुप्त काल में मनुस्मृति के आधार पर बाद की प्रमुख
स्मृतियों (याज्ञवल्क्य,
नारद, बृहस्पति और
कात्यायन) का निर्माण हुआ। यद्यपि इन स्मृतियों का काल निर्धारण कठिन है, फिर भी अधिकतर इतिहासकारों की यही मान्यता है कि
इनको इसी काल में लेखबद्ध किया गया। मनुस्मृति का महत्त्व स्मृति साहित्य में
सर्वाधिक है। अन्य स्मृतियों की रचना इसी को आधार बनाकर की गई। याज्ञवल्क्य स्मृति
का महत्त्व व्यवहारिक दृष्टि से अधिक है। इसमें कहीं कहीं मनुस्मृति से साम्य और
कहीं-कहीं विरोध भी मिलता है। मनु के समय की सामाजिक अवस्था में इस समय तक काफी
परिवर्तन आ गये थे। इन परिवर्तनों को पुन: संगठित रूप प्रदान करने के लिए
याज्ञवल्क्य स्मृति का प्रणयन किया गया। याज्ञवल्क्य स्मृति में धर्म, वर्ण, आश्रम, विधि, समाज, प्रायश्चित, राज्यशास्त्र
भ्रूण विज्ञान आदि सभी पक्षों से संबंधित विवरण मिलता है। इस ग्रन्थ की
वैज्ञानिकता व पक्षपात रहित दृष्टिकोण के कारण इस ग्रन्थ को संपूर्ण भारत में
मान्यता प्राप्त हुई। हिन्दू विधि का दायभाग तो
आज भी इसकी प्रमुख टीका मिताक्षरा पर आधारित है। नारद, बृहस्पति व कात्यायन की स्मृतियों में नारद स्मृति
ही पूर्ण रूप से प्राप्त हुई है। इसे जाली ने संपादित किया। बृहस्पति व कात्यायन
की स्मृतियाँ, स्मृतियों के टीकाकारों व निबन्धकारों के उद्धरणों
के रूप में थी।
मनु व याज्ञवल्क्य की तुलना में नारद स्मृति
में व्यवहार (कानूनी) व न्यायिक विचारों की प्रधानता है। व्यवहार सम्बन्धी विवरण
तो पूर्णता लिए दिखता है,
अन्य विषयों पर नारद ने प्रसंगवश ही विचार
व्यक्त किये हैं। नारद, बृहस्पति व कात्यायन तीनों स्मृतियों में कानून के
दोनों पक्षों दीवानी व फौजदारी का विवेचन किया गया है। नारद स्मृति में न्यायशासन, कचहरी का संविधान, प्रमाणों
का स्वरूप, गवाह, व्यवहार के
अठारह शीर्षक आदि का उल्लेख है।
बृहस्पति स्मृति की रचना चौथी शताब्दी ईसवी तक हो चुकी थी। बृहस्पति
मनु व याज्ञवल्क्य से परिचित थे और उनका काल 200 ई. से 400 ई. के मध्य माना जा सकता है। बृहस्पति स्मृति को सात
भागों में विभाजित आपद्धर्मकाण्ड, प्रायश्चित काण्ड।
स्मृति का अधिकांश भाग व्यवहार से संबधित है। बृहस्पति ही प्रथम कानून निर्माता थे
जिन्होंने दीवानी व फौजदारी मुकदमों में स्पष्ट विभाजन किया। उन्होंने मुकदमों के
दो प्रकार बताए हैं- अर्थसमुद्भव या दीवानी व हिंसा समुद्भव या फौजदारी। धन
सम्बन्धी मुकदमों की संख्या चौदह है और हिंसा से संबंधित मुकदमों की चार।
याज्ञवल्क्य व नारद की तरह बृहस्पति ने कुल, श्रेणी, गण आदि कई प्रकार के न्यायालयों का उल्लेख किया है।
बृहस्पति ने चार प्रकार के न्यायालयों का उल्लेख किया है-प्रतिष्ठित, अप्रतिष्ठित, मुद्रता और
शासिता। न्यायिक प्रक्रिया के प्रारम्भ से अंत तक बृहस्पति इतना विस्तार से बताते
हैं कि उनकी तुलना आधुनिक न्यायशास्त्री से की जा सकती है।
कात्यायन स्मृति में व्यवहार के चार अंग- धर्म, व्यवहार, चरित्र और
राजशासन, न्यायभवन, सभासद, वादी, वादी को परखने
के तरीके, प्रतिवादी, गाही, प्लैन्ट की
विशेषता और दोष, कानून के अठारह शीर्षकों, उत्तर के विभिन्न प्रकार, दिव्य, लिखित प्रमाण
आदि का उल्लेख हुआ है। कात्यायन ने स्त्री-धन के कई प्रकार बताये हैं।
नीति ग्रन्थ- गुप्त काल में कामदक ने कामन्दकीय नीतिसार की रचना की। कामंदक के राजनैतिक विचारों का आधार
कौटिलीय अर्थशास्त्र है। कामंदक के ग्रन्थ से तत्कालीन राज्य व्यवस्था व प्रशासन
की रूपरेखा प्राप्त होती है। हितोपदेश व पंचतंत्र की रचना भी गुप्त
काल में हुई। इनमें कहानियों के माध्यम से नीति का उपदेश
दिया गया है। पंचतत्र के
लेखक विष्णु शर्मा हैं। संसार की अधिकांश भाषाओं में इस गन्थ का अनुवाद हो चुका
है। पंचतत्र वर्तमान में भी एक लोकप्रिय ग्रन्थ है।
कोश और व्याकरण- प्राचीन काल से ही भारत में कोश निर्माण की परम्परा
चली आ रही है। यास्ककृत निघंटु और निरुक्त से वैदिक साहित्य के अध्ययन में सहायता
मिलती है। गुप्त काल में अमरसिंह ने अमरकोश की
रचना की। गुप्तकाल में भट्टि, भौमक आदि व्याकरण के
विद्वान् थे। भर्तृहरि भी इसी काल में हुए। नीति, श्रृंगार
और वैराग्य शतक एक महत्त्वपूर्ण रचना है। चन्द्रगोमिन ने चन्द्रव्याकरण की
रचना की। इसका शैली पाणिनि की अष्टाध्यायी से पृथक् है। इसका एक अनुवाद तिब्बती
भाषा में प्राप्त हुआ है।
दर्शन ग्रन्थ- गुप्तकाल में दर्शन से संबंधित भी बहुत से ग्रन्थों
का प्रणयन हुआ। इस समय तक ब्राह्मण व बौद्ध दर्शन का विकास हो चुका था। दोनों
सम्प्रदायों के लोगों में शास्त्रार्थ होता था। सांख्य दर्शन से संबंधित ईश्वर
कृष्ण की सांख्यकारिका भी
गुप्त युग की रचना है। बहुत से दार्शनिक ग्रन्थों पर महाभाष्य लिखे गये हैं।
पतंजलि के महाभाष्य पर भी टीका लिखी गयी। जैमिनी के पूर्व मीमांसा तथा बादरायण के
उत्तरमीमांसा पर भाष्यों की रचना हुई। दिङनाग ने प्रमाणसमुच्चय और न्यायप्रवेश आदि ग्रन्थ लिखे। उद्योत्तकर ने न्यायभाष्य पर न्यायवार्तिक नामक
टीका लिखी। वैषेशिक दर्शन-पद्धति पर आचार्य प्रशस्तपाद ने पदार्थ धर्मसंग्रह नामक ग्रन्थ लिखा है। चन्द्र ने दशपदार्थ शास्त्र की रचना की।
गुप्तकाल में बौद्ध धर्म की दो शाखाएँ और उनकी
दो-दो उपशाखाएँ विकसित हुई। हीनयान की शाखाएँ थीं- थेरवाद (स्थविरवाद) और वैभाषिक
(सर्वास्तिवाद) और महायान की थीं-माध्यमिक और योगाचार। असंग जो योगाचार से सम्बद्ध वज्रछेदिका टीका, योगाचार
भूमिशास्त्र नामक ग्रन्थ लिखे थे। बसुबंधु ने अभिधर्मकोश की
रचना की। बुद्धघोष ने विशुद्धिमग्ग नामक
ग्रन्थ रचा जिसमें शील, समाधि आदि की विवेचना की गयी है।
बौद्ध ग्रन्थ विनयपिटक पर समंतपासादिका टीका
की रचना की गई। बुद्धघोष ने सुमंगलविलासिनी की भी रचना की। यह दीघनिकाय से संबंधित सुवर्णप्रमास, राष्ट्रपाल
परिपृच्छा आदि बौद्ध कृतियों का भी निर्माण किया गया। बहुत से
जैनग्रन्थ भी गुप्तकाल में लिखे गये। जैनाचार्य सिद्धसेन ने तत्त्वानुसारिणी
तत्त्वार्थटीका नामक ग्रन्थ की रचना की। गुप्त काल में शैव नाय्यारों और वैष्णव
आलवारों ने तमिल भाषा में बहुत से भक्ति से संबंधित-पदों की रचना की। तमिल के
साथ-साथ अपभ्रंश व प्राकृत भाषा का भी विकास हुआ। प्राकृत भाषा के सेतुबंध व गौडवहों भी
गुप्तकालीन ग्रन्थ
है। सेतुबंध प्रवरसेन का लिखा हुआ है, गौड्वहो का
लेखक वाक्पनतिराज है।