समाज
सिंधु सभ्यता में चार प्रजातियों का पता चलता है-
- भूमध्यसागरीय,
- प्रोटोआस्ट्रेलियाड,
- मंगोलाइड,
- अल्पाइन
सबसे जयादा भूमध्यसागरीय प्रजाति के लोग थे। सिन्धु का समाज संभवत: चार वर्गों में विभाजित था- योद्धा, विद्वान्, व्यापारी और श्रमिक। स्त्री-मृण्मूर्तियों की संख्या देखते हुए ऐसा अनुमान किया जाता है कि सिंधु सभ्यता का समाज मातृसत्तात्मक था। हड़प्पा सभ्यता के लेाग युद्ध प्रिय कम और शांति प्रिय अधिक थे। हड़प्पा एवं मोहनजोदड़ो में दो तरह के भवन मिलने के आधार पर लोग कहते हैं कि बड़े घरों में सम्पन्न लोग रहते थे तथा छोटे घरों में मजदूर, गरीब अथवा दास रहते थे अर्थात् समाज दो वर्गों-सम्पन्न एवं गरीब में विभाजित था।
वस्त्राभूषण- अधिक संख्या में पुरुषाकृतियाँ सैन्धव स्थलों से प्राप्त नहीं हुई हैं एवं जो उपलब्ध हुई हैं वे अधिकांशतः खण्डित हैं, अत: उनसे पुरुषों के परिधान पर विशेष प्रकाश नहीं पड़ता। मोहनजोदड़ो से प्राप्त घीया पत्थर की मानव मूर्ति उपलब्ध हुई है जिसे योगी की मूर्ति कहा गया है। इस मूर्ति के अवलोकन से प्रतीत होता है कि पुरुष एक शाल का प्रयोग करते थे जिससे बायें कन्धे को ढकते हुए दाहिने हाथ के नीचे से निकाला जाता था। उपरोक्त शाल पर त्रिखण्डीय अलंकरण देखा जाता है। इस प्रकार के चित्रित वस्त्रों का प्रयोग सम्भवत: अन्य लोगों द्वारा भी किया जाता होगा। स्त्रियों के वस्त्राभूषण के विषय में विपुल संख्या में प्राप्त मृण्मूर्तियों से अनुमान लगाया जा सकता है। इस प्रकार की मूर्तियों को मातृदेवी की मूर्तियाँ कहा गया है। इनके शरीर का ऊपरी भाग वस्त्रहीन दिखाया गया है और अधोभाग में घुटनों तक का घेरदार वस्त्र मिलता है। थपलियाल एवं शुक्ल के अनुसार, ऐतिहासिक काल में इस तरह के अधोवस्त्र गुप्तकालीन मृण्मूर्तियों एवं अजन्ता की चित्रकला से मिलते हैं। इस घेरदार वस्त्र को कमर पर करधनी द्वारा आबद्ध किया जाता था और सामने अथवा बकसुए द्वारा कसा जाता था। कुछ स्त्री-मूर्तियों के सिर पर आकृति की एक विचित्र शिरोभूषा दिखाई देती है। कुछ आकृतियों के दोनों ओर डलिया जैसी वस्तु रखी दिखाई पड़ती है। स्त्रियों में आकर्षक विन्यास का प्रचलन था। मोहनजोदडो से प्राप्त कांस्य मूर्ति का अत्यन्त आकर्षक है। सैन्धव जन आभूषण प्रिय थे, आभूषणों का एवं पुरुषों द्वारा समान रूप से किया जाता था। बहुमूल्य गुरियों से आभूषणों का उपयोग विशेष रूप से प्रचलित रहा होगा। हड़प्पा से 6 लड़ी का सोने के मनकों का हार मिला है। हड़प्पा से एक बोतल मिली है काले रंग की वस्तु प्राप्त हुई है जो काजल का प्रतीक है।
खानपान- सैन्धव लोगों के खान-पान के विषय में हमें बहुत कम जानकारी है। पुराविदों की मान्यता है कि सैन्धव लोग गेहूँ एवं जौ खाते थे, किन्तु कालीबंगा एवं निकटवर्ती प्रदेश के लोगों को जौ से ही सन्तुष्ट रहना पड़ता था। गुजरात के रंगपुर, सुरकोतदा आदि स्थानों के निवासी चावल और बाजरा खाना पसन्द करते थे। तिल एवं सरसों के तेल एवं सम्भवत: घी का भी प्रयोग किया जाता था।
मनोरंजन- मछली पकड़ना, शिकार करना, पशु-पक्षियों को आपस में लड़ाना एवं चौपड़ और पासा खेलना इस सभ्यता में मनोरंजन के साधन थे।
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अंत्येष्टि- अंत्येष्टि के निम्नलिखित प्रकार थे-
- पूर्ण समाधिकरण,
- आंशिक समाधिकरण और
- दाह संस्कार
सबसे अधिक पूर्ण समाधिकरण प्रचलित था। कालीबंगा में छोटी-छोटी गोलाकार कब्रे मिली हैं, जबकि लोथल में युग्म शवाधान का साक्ष्य मिला है। रूपनगर की एक समाधि में मालिक के साथ कुत्ते को दफनाए जाने का साक्ष्य मिलता है। कुत्ता एवं मालिक को साथ दफनाये जाने का साक्ष्य बुर्जहोम में भी मिला है। हड़प्पा की एक कब्र में ताबूत मिला है और सुरकोटड़ा से अनोखी कब्र मिली है।
धर्म
सैन्धव सभ्यता के धार्मिक जीवन का जहाँ तक प्रश्न है, इनके विषय में किसी साहित्य का न मिलना, स्मारकों के अभाव एवं लिपि न पढ़े जाने के कारण कोई स्पष्ट जानकारी नहीं मिल पाती। मोहनजोदड़ो से प्राप्त मुहर पर योगी की आकृति (संभवत: पशुपति शिव) मिली है। लिंगीय प्रस्तर (शिव लिंग से मिलते-जुलते), मातृ देवी की मृण्मूर्ति जिससे उर्वरता की उपासना तथा मातृदेवी की पूजा के संकेत मिलते हैं। हवन कुडों में होने वाले हवनों (जैसे कालीबंगा) इत्यादि के आधार पर सैन्धव सभ्यता के धार्मिक जीवन के विषय में अनुमान लगाया जाता है। सैन्धव सभ्यता में वृक्ष पूजा (पीपल), पशु पूजा (कुबड वाला पशु) एवं जल पूजां के भी प्रमाण मिले हैं। सिन्धु सभ्यता में मंदिरों का कोई अवशेष नहीं मिला है।
मातृदेवी की पूजा- देवियों की पूजा सौम्य एवं रौद्र दोनों रूपों में होती थी। बलूचिस्तान स्थित कुल्ली नामक स्थान में नारी मृण्मूर्तियों में सौम्य रूप दिखता है, लेकिन बलूचिस्तान की झौब संस्कृति से प्राप्त मूर्तियाँ रौद्र रूप में दिखती हैं। जिन मृण्मूर्तियों में गर्भणी नारी का रूपाकन है, उन्हें पुत्र प्राप्ति हेतु चढ़ाई गई भेंट मानी जा सकती है। नारी की पूजा कुमारी के रूप में की जाती थी। मोहनजोदड़ो से प्राप्त एक मूर्ति में एक देवी के सिर पर पक्षी पंख फैलाये बैठा है। हड़प्पा से प्राप्त एक मुहर के दाहिने भाग में एक स्त्री सिर के बल खड़ी हैं।
पृथ्वी की पूजा- एक स्त्री के गर्भ में एक पौधा प्रस्फुटित होता दिखाया गया है।
शिव की पूजा- मोहनजोदड़ो से प्राप्त एक मुहर में योगी की मुद्रा में एक व्यक्ति का चित्र है। इसके तीन मुख और दो सींग हैं। उसके बांयी ओर बाघ और हाथी तथा दांयी ओर भैंस और गैंडा हैं। आसन के नीचे दो हिरण बैठे हुए हैं। मार्शल का मानना है कि वे पशुपति शिव हैं। सिंधु सभ्यता में शिव की पूजा किरात (शिकारी) रूप में, नागधारी रूप में, धनुर्धर रूप में और नर्तक रूप में होती थी। एक जगह पर एक व्यक्ति को दो बाघों से लड़ते हुए दिखाया गया है, संभवत: वह मेसोपोटामिया के योद्धा गिलगमेश की आकृति है।
प्रजनन शक्ति की पूजा- लिंग पूजा का सर्वाधिक प्राचीन प्रमाण हड़प्पा से मिला है।
पशु पूजा- मुख्य रूप से कुबड वाले सांड की पूजा होती थी। पशु पूजा वास्तविक एवं काल्पनिक दोनों रूपों में होती थी।
वृक्ष पूजा- संभवत: पीपल, नीम और बबूल की पूजा होती थी एवं मुख्य रूप में पीपल और बबूल की पूजा होती थी।
नाग पूजा- कुछ मृदभांडों पर नाग की आकृति मिली हैं। अत: ऐसा अनुमान किया जाता है कि सिंधु सभ्यता में नाग की भी पूजा की जाती थी।
अग्नि पूजा- कालीबंगा, लोथल, बनवाली एंव राखीगढ़ी के उत्खननों से हमें अनेक अग्निवेदियाँ मिली हैं एवं कुछ स्थानों पर उनके साथ ऐसे प्रमाण भी मिले हैं, जिनमें उनके धार्मिक प्रयोजनों के लिए अग्नि के प्रयुक्त होने की संभावना प्रतीत होती है।
सार्वजनिक स्नान एवं जल पूजा- मोहनजोदड़ो से प्राप्त स्नानागार का अनुष्ठानिक महत्व था। वैदिक काल में भी नदी की पूजा होती थी और परवर्ती काल में सिंधु क्षेत्र में जल की पूजा होती थी। इस पूजा से जुड़े हुए लोग दरियापंथी कहलाते थे।
स्वास्तिक एवं ऋग स्तंभ की पूजा- स्वास्तिक एवं ऋग स्तंभ की पूजा भी की जाती थी।
प्रेतवाद- सिंधु सभ्यता के धर्म में हमें प्रेतवाद का भाव मिलता है। प्रेतवाद वह धार्मिक अवधारणा है जिसमें वृक्षों, पत्थरों आदि की उपासना इस भय से की जाती है कि इनमें बुरी आत्मा निवास करती है।
इसके अतिरिक्त सिन्धु अतिरिक्त सिन्धु सभ्यता की धार्मिक भावना में हमें भक्ति धर्म और पुनर्जन्मवाद के बीज भी मिलते हैं।
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